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PRESSPALIKA NEWS CHANNEL-प्रेसपालिका न्यूज चैनल

5.4.12

पुलिस बनाम जनता


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

यह सबसे बुरी और गलत बात है कि अधिक मुकदमे दर्ज होने का कारण आला पुलिस अधिकारियों द्वारा थानाधिकारी से पूछा जाता है। जबकि इसके विपरीत होना तो यह चाहिये कि जिस थाने में अधिक मुकदमे दर्ज हुए हों, उस थाने को जनता के प्रति अधिक संवेदनशीलता का प्रमाण-पत्र दिया जाना चाहिये। आखिर अपराधियों से आहत जनता का कानूनी तौर पर उपचार प्रदान करने का काम करने के लिये ही तो पुलिस थानों की स्थापना की गयी है। जिन्हें अधिकतम कानूनी उपचार प्रदान करने के लिये, सवालों के घेरे में खड़ा करना किसी भी सूरत में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। क्या कभी किसी उच्चतम स्तर के चिकित्सा अधिकारी ने नीचे के स्तर के चिकित्सक से यह सवाल किया है कि उसके द्वारा अधिक संख्या में बीमारों का उपचार क्यों किया गया? यदि नहीं तो पुलिस थाने से भी यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि उसने अधिक फरियादियों की फरियाद दर्ज क्यों की? क्योंकि पुलिस भी तो आहत व्यक्ति को कानूनी उपचार प्रदान करती है। कानूनी उपचार भी जीवन के लिये उतना ही जरूरी है, जितना कि चिकित्सक द्वारा प्रदान किया जाने वाला शारीरिक या मानसिक उपचार।

4.2.12

डॉ. मीणा ने लायंस क्लब जयपुर मधुरम के सदस्यों को जागरूक नागरिक बनने की जानकारी प्रदान की|

सोमवार 30 जनवरी को लायंस क्लब जयपुर मधुरम के विशेष आमन्त्रण पर भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने क्लब के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए सजग, सतर्क और जागरूक नागरिक बनने के लिये प्रेरित किया|

लायंस क्लब जयपुर मधुरम की ओर से डॉ. मीणा को मोटीवेटर (प्रणेता) के रूप में क्लब की बैठक में विशेष अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया गया|

जयुपर के महारानी पैलेस होटल में आयोजित क्लब की बैठक में विशेष अतिथि के रूप में सम्बोधित करते हुए डॉ. मीणा ने लायंस क्लब जयपुर मधुरम के कार्यों की प्रशंसा की और क्लब द्वारा मानव सेवा के हित में किये जा रहे कार्यों के लिये शुभकामनाएँ भी दी|

डॉ. मीणा ने कहा कि लायंस क्लब में जयपुर से अधिकतर सम्पन्न और सम्मानित लोग जुड़े हुए हैं, जिनके द्वारा मानव सेवा के लिये कार्य किया जाना तो प्रशंसनीय है ही लेकिन इसके साथ-साथ क्लब को चाहिये कि अपने सभी सदस्यों को दैनिक जीवन में उपयोगी कानूनी एवं संवैधानिक अधिकारों तथा कर्त्तव्यों के बारे में भी जरूरी जानकारी प्रदान की जावे| इससे सदस्यों के आत्मविश्‍वास में वृद्धि होगी और सदस्यगण निर्भीकतापूर्वक अपने सभी अधिकारों और कर्त्तव्यों का निर्वाह कर सकेंगे|

डॉ. मीणा ने दैनिक जीवन से जुड़े अनेक संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी प्रदान करने के साथ-साथ नागरिकों के कर्त्तव्यों और सूचना के अधिकार (आरटीआई) के बारे में भी उपयोगी जानकारी प्रदान की| उपस्थित सदस्यों को कानूनी जानकारी प्राप्त करना सुखद लगा और आगे भी डॉ. मीणा को जानकारी प्रदान करते रहने के लिये आग्रह किया गया|

लायंस क्लब जयपुर मधुरम की बैठक में रीजनल चेयर पर्सन वीना पारख मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थी| कार्यक्रम के प्रारम्भ में लायंस क्लब जयपुर मधुरम की ओर से उपस्थित सभी अतिथियों का माल्यार्पण करके स्वागत किया और कार्यक्रम के अन्त में सभी अतिथियों को स्मृति चिन्ह भी भेंट किये गये|

8.1.12

पाक अधिकृत नहीं, पाक काबिज कश्मीर लिखें!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
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भारत की आजादी के बाद जम्मू और कश्मीर पर पाकिस्तान की सेना ने कबायलियों के बेश में आक्रमण किया था, जिससे बचाव के लिये वहॉं के तत्कालीन शासक राजा हरिसिंह ने भारत से मदद मांगी| मदद के बदले में भारत की ओर से राजा हरिसिंह के समक्ष कश्मीर का भारत में विलय करने की शर्त रखी गयी, जिसे थोड़ी नानुकर के बाद परिस्थितियों की बाध्यता के चलते कुछ शर्तों के आधार पर स्वीकार कर लिया गया| जिसके चलते भारत में जम्मू एवं कश्मीर के लिये विशेष उपबन्ध किये गये| जिन्हें लेकर आज भी विवाद जारी है| जिस पर चर्चा करना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है| विलय समझौते के तत्काल बाद कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाने के साथ ही, भारत का कानूनी और नैतिक उत्तरदायित्व था कि पाकिस्तान के आक्रमण को विफल करके काबायलियों के वेश में कश्मीर में प्रवेश कर चुकी पाकिस्तानी सेना को वापस खदेड़ा जाता और कश्मीर के सम्पूर्ण भू-भाग को खाली करवाया जाता, लेकिन तत्कालीन केन्द्रीय सरकार के मुखिया रहे पं.जवाहर लाल नेहरू की अदूरदर्शी नीतियों के चलते न मात्र कश्मीर को तत्काल खाली नहीं करवाया जा सका, बल्कि कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाकर अकारण ही आन्तरिक मसले को बहुपक्षीय और अन्तर्राष्टीय मुद्दा बना दिया गया|

मेरे मतानुसार इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि राजा हरिसिंह ने पाकिस्तानी सैनिकों को खेदड़कर कश्मीर को मुक्त करवाने के मूल मकसद से ही भारत से मदद मांगी थी, जिसके बदले में वे कश्मीर का भारत में विलय करने को राजी हुए थे| तत्कालीन नेतृत्व की कमजोरी के चलते कश्मीर विलय की अन्य शर्तें तो लागू कर दी गयी, लेकिन पाकिस्तान आज भी वहीं का वहीं अनाधिकृत रूप से काबिज है| जो सामरिक दृष्टि से भारत के लिये बहुत बड़ी समस्या बन चुका है| इसके बावजूद हम बड़े गर्व से कहते हैं कि ‘‘सम्पूर्ण कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है और रहेगा|’’ जबकि कड़वी सच्चाई यह है कि ‘‘१५ अगस्त, १९४७ के बाद से आज तक सम्ूपर्ण कश्मीर एक पल को भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा|’’ हॉं सम्पूर्ण कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा हो सकता था, लेकिन हम उसे अपना बनाने में नाकमयाब रहे| यही नहीं हमने एक बहुत बड़ी गलती यह की, कि पाकिस्तानी आक्रामकों के कब्जे से जो कश्मीर का जो हिस्सा नहीं छुड़ाया जा सका, उस हिस्से को हम अंग्रेजी में ‘पाक ऑक्यूपाईड’ और हिन्दी में ‘पाक अधिकृत’ लिखते आये हैं, जो मेरी नजर में उपयुक्त शब्दावलि (हिन्दी में) नहीं हैं| कम से कम हिन्दी में इसे ‘पाक अधिकृत’ के बजाय ‘पाक काबिज’ लिखा जाना चाहिये| अभी भी इस गलति को सुधारा जा सकता है|

‘पाक अधिकृत’ वाक्यांश को नयी पीढी जब पढती है तो उसे ऐसा आभास होता है, मानों कि कश्मीर के एक हिस्से पर पाकिस्तान का ‘विधिक अधिकार’ है, क्योंकि अंग्रेजी के ‘ऍथोराइज’ शब्द को भी हिन्दी में ‘अधिकृत’ ही लिखा जाता है| मुझे नहीं पता कि पाठकों को मेरे विवेचन से सहमति होने में कैसा लगेगा, लेकिन विद्वान पाठकों के समक्ष मेरा विचार प्रस्तुत है| जिससे मेरी सोच की व्यावहारिकता और प्रासंगिकता के बारे में आगे की दिशा तय हो सके| विद्वान पाठकों के अमूल्य विचारों की अपेक्षा रहेगी|

25.12.11

सूचना का अधिकार अधिनियम में तीन संशोधन!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

प्रारम्भ में जब सूचना अधिकार कानून की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो आम लोगों को इस कानून से भारी उम्मीद थी| लेकिन जैसे ही इस कानून से सच्चाई बाहर आत दिखी तो अफसरशाही ने इस कानून की धार को कुन्द करने के लिये नये-नये रास्ते खोजना शुरू कर दिये| जिसे परोक्ष और अनेक बार प्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका ने भी संरक्षण प्रदान किया है| अन्यथा अकेला सूचना का अधिकार कानून ही बहुत बड़ा बदलाव ला सकता था| एक समय वाहवाही लूटने वाले सत्ताधारी भी इस कानून को लागू करने के निर्णय को लेकर पछताने लगे हैं| जिसके चलते इस कानून को भोथरा करने के लिये कई बार इसमें संशोधन करने का दुस्साहस करने का असफल प्रयास किया गया| जिसे इस देश के लोगों की लोकतान्त्रिक शक्ति ने डराकर रोक रखा है|

इसके बावजूद भी सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को सही तरह से लागू करने और सच्चे अर्थों में क्रियान्वित करने के मार्ग में अनेक प्रकार से व्यवधान पैदा किये जा रहे हैं| अधिकतर कार्यालयों में जन सूचना अधिकारियों द्वारा मूल कानून में निर्धारित 30 दिन में सूचना देने की समय अवधि में जानबूझकर और दुराशयपूर्वक आवेदकों को उपलब्ध होने पर भी सूचना उपलब्ध नहीं करवाई जाती है या गुमराह करने वाली या गलत या अस्पष्ट सूचना उपलब्ध करवाई जाती है|

जन सूचना अधिकारियों द्वारा निर्धारित 30 दिन की समयावधि में सही/पूर्ण सूचना उपलब्ध नहीं करवाये जाने के मनमाने, गलत और गैर-कानूनी निर्णय का अधिकतर मामले में प्रथम अपील अधिकारी भी आंख बन्द करके समर्थन करते हैं| ऐसे अधिकतर मामलों में केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों द्वारा लम्बी सुनवाई के बाद आवेदकों को चाही गयी सूचना प्रदान करने के आदेश तो दिये जाते हैं, लेकिन जानबूझकर निर्धारित 30 दिन की समयावधि में सूचना उपलब्ध नहीं करवाने के दोषी जन सूचना अधिकारियों तथा उनका समर्थन करने वाले प्रथम अपील अधिकारियों के विरुद्ध कठोर रुख अपनाकर दण्डित करने के बजाय नरम रुख अपनाया जाता है| 

जिसके चलते सूचना आयोगों में द्वितीय अपीलों की संख्या में लगातार बढोतरी हो रही है| सूचना का अधिकार कानून में निर्धारित आर्थिक दण्ड अधिरोपित करने के मामले में सूचना आयोग को अपने विवेक का उपयोग करके कम या अधिक दण्ड देने की कोई व्यवस्था नहीं होने के उपरान्त भी केन्द्रीय और राज्य सूचना आयोगों द्वारा अपनी पदस्थिति का दुरुपयोग करते हुए अधिकतर मामलों में निर्धारित दण्ड नहीं दिया जा रहा है| अधिक दण्ड देने का तो सवाल ही नहीं उठता| यहॉं तक कि यह बात साफ तौर पर प्रमाणित हो जाने के बाद भी कि प्रारम्भ में सूचना जानभूझकर नहीं दी गयी है| जन सूचना अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा नहीं की जा रही हैं| यही नहीं ऐसे मामलों में भी प्रथम अपील अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह से बचे हुए हैं| उन्हें दण्डित किये बिना, उनसे उनके दायित्वों का निर्वाह करवाना लगभग असम्भव है| इस वजह से भी केन्द्रीय व राज्यों के सूचना आयोगों में अपीलों का लगातार अम्बार लग रहा है|

इन हालातों में यह बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि सूचना का अधिकार कानून के तहत आवेदकों को सही समय पर सूचना नहीं मिले, इस बात को परोक्ष रूप से सूचना आयोग ही प्रोत्साहित कर रहे हैं| मूल अधिनियम में सूचना आयोगों के लिये द्वितीय अपील का निर्णय करने की समय सीमा का निर्धारण नहीं किया जाना भी इसकी बड़ी वजह है|

यदि जन सूचना अधिकारी एवं उनके गलत निर्णय का समर्थन करने के दोषी पाये जाने वाले सभी प्रथम अपील अधिकारियों को भी अधिकतम आर्थिक दण्ड 25000 रुपये से दण्डित किये जाने के साथ-साथ निर्धारित अवधि में अनुशासनिक कार्यवाही किये जाने की अधिनियम में ही स्पष्ट व्यवस्था हो और सूचना आयोगों द्वारा इसका काड़ाई से पालन किया जावे तो 90 प्रतिशत से अधिक आवेदकों को प्रथम चरण में ही अधिकतर और सही सूचनाएँ मिलने लगेंगी| इससे सूचना आयोगों के पास अपीलों में आने वाले प्रकरणों की संख्या में अत्यधिक कमी हो जायेगी| जिसका उदाहरण मणीपुर राज्य सूचना आयोग है, जहॉं पर सूचना उपलब्ध नहीं करवाने के दोषी जन सूचना अधिकारियों पर दण्ड अधिरोपित करने में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है, जिसके चलते मणीपुर राज्य सूचना आयोग में अपीलों की संख्या चार अंकों में नहीं है| अधिकतर मामलों में जन सूचना अधिकारी ही सूचना उपलब्ध करवा देते हैं|

दूसरा यह देखने में आया है कि लम्बी जद्दोजहद के बाद यदि केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों द्वारा आवेदक को सूचना प्रदान करने का निर्देश जारी कर भी दिया जाता है तो ब्यूरोक्रट्स हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट की शरण में चले जाते हैं| जहॉं पर मामले में सूचना नहीं देने के लिये स्थगन आदेश मिल जाता है और अन्य मामलों की भांति ऐसे मामले भी तारीख दर तारीख लम्बे खिंचते रहते हैं, जिससे सूचना अधिकार कानून का मकसद ही समाप्त हो रहा है| इस प्रक्रिया की आड़ में भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स अपने काले कारनामों को लम्बे समय तक छिपाने और दबाने में कामयाब हो रहे हैं|

अत: बहुत जरूरी है कि सूचना अधिकार से सम्बन्धित जो भी मामले हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश हों उनमें सुनवाई और निर्णय करने की समयावधि निर्धारित हो| इस व्यवस्था से कोर्ट की आड़ लेकर सूचना को लम्बे समय तक रोकने की घिनौनी तथा गैर-कानूनी साजिश रचने वाले भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स की चालों से सूचना अधिकार कानून को बचाया जा सकेगा|

इस प्रकार सूचना का अधिकार कानून को अधिक पुख्ता बनाने के लिये सूचना का अधिकार आन्दोलन से जुड़े लोगों को इस बात के लिये केन्द्रीय सरकार पर दबाव डालना चाहिये कि संसद के मार्फत इस कानून में निम्न तीन संशोधन किये जावें :-

1. जन सूचना अधिकारी और प्रथम अपील अधिकारी के दोषी पाये जाने पर जो आर्थिक दण्ड दिया जायेगा, उसमें केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों या न्यायालयों को विवेक के उपयोग करने का कोई अधिकार नहीं होगा| सूचना देने में जितने दिन का विलम्ब किया गया, उतने दिन का आर्थिक जुर्माना जन सूचना अधिकारियों और प्रथम अपील अधिकारियों को पृथक-पृथक समान रूप से अदा करना ही होगा| साथ ही दोषी पाये जाने वाले सभी जन सूचना अधिकारियों और सभी प्रथम अपील अधिकारियों के विरुद्ध भी अनिवार्य रूप से अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा भी की जाये| अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा करने का प्रावधान सूचना आयोगों के विवेक पर नहीं छोड़ा जाना चाहिये, क्योंकि जब सूचना नहीं दी गयी है तो इसे सिद्ध करने की कहॉं जरूरत है कि सूचना नहीं देने वाला जन सूचना अधिकारी अनुशासनहीन है| जिसने अपने कर्त्तव्यों का कानून के अनुसार सही सही पालन नहीं किया है, उस लोक सेवक का ऐसा कृत्य स्वयं में अनुशासनहीनता है, जिसके लिये उसे दण्डित किया ही जाना चाहिये| केवल इतना ही नहीं, अनुशासनहीनता के मामलों में सम्बन्धित विभाग द्वारा दोषी लोक सेवक के विरुद्ध अधिकतम एक माह के अन्दर निर्णय करके की गयी अनुशासनिक कार्यवाही के बारे में केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोग को भी अवगत करवाये जाने की बाध्यकारी व्यवस्था होनी चाहिये| साथ ही ये व्यवस्था भी हो कि यदि सम्बन्धित विभाग द्वारा एक माह में अनुशासनिक कार्यवाही नहीं की जावे तो एक माह बाद सम्बन्धित सूचना आयोग को बिना इन्तजार किये सीधे अनुशासनिक कार्यवाही करने का अधिकार दिया जावे| जिस पर सूचना आयोग को अगले एक माह में निर्णय लेना बाध्यकारी हो| इसके अलावा विभाग द्वारा की गयी अनुशासनिक कार्यवाही के निर्णय का सूचना आयोग को पुनरीक्षण करने का भी कानूनी हक हो|

2. कलकत्ता हाई कोर्ट के एक निर्ण में की गयी व्यवस्था के अनुसार सूचना अधिकार कानून में द्वितीय अपील के निर्णय की समय सीमा अधिकतम 45 दिन निर्धारित किये जाने की तत्काल सख्त जरूरत है|

3. सूचना अधिकार कानून में ही इस प्रकार की साफ व्यवस्था की जावे कि इस कानून से सम्बन्धित जो भी मामले हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत हों, उनकी प्रतिदिन सुनवाई हो और अधिकतम 60 दिन के अन्दर-अन्दर उनका अन्तिम निर्णय हो| यदि साठ दिन में न्यायिक निर्णय नहीं हो तो पिछला निर्णय स्वत: ही क्रियान्वित हो| कोर्ट के निर्णय के बाद दोषी पाये जाने अधिकारियों के विरुद्ध जुर्माने के साथ-साथ कम से कम 9 फीसदी ब्याज सहित जुर्माना वसूलने की व्यवस्था भी हो|

यदि सूचना अधिकार आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता इन विषयों पर जनचर्चा करें और जगह-जगह इन बातों को प्रचारित करें तो कोई आश्‍चर्य नहीं कि ये संशोधन जल्दी ही संसद में विचारार्थ प्रस्तुत कर दिये जावें| लेकिन बिना बोले और बिना संघर्ष के कोई किसी की नहीं सुनता है| अत: बहुत जरूरी है कि इस बारे में लगातार संघर्ष किया जावे और हर हाल में इस प्रकार से संशोधन किये जाने तक संघर्ष जारी रखा जावे|

13.12.11

कैसा हो लोकपाल कानून?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इस देश की रग-रग में भ्रष्टाचार समाया हुआ है और भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये अन्य अनेक बातों के साथ-साथ सख्त कानून की दरकार है, जिसके लिये प्रस्तावित लोकपाल कानून को जरूरी बताया जा रहा है| अब तक की सभी केन्द्र सरकारों द्वारा किसी न किसी बहाने लोकपाल कानून को लटकाकर रखा है, जिसमें कॉंग्रेस भी शामिल है| चूँकि कॉंग्रेस ने सर्वाधिक समय तक देश पर शासन किया है, इस कारण कॉंग्रेस भ्रष्टाचार को पनपाने, रोकथाम नहीं कर पाने और भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों का क्रियान्वयन नहीं करवा पाने और, या लोकपाल कानून को नहीं बनवा पाने के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार है| जिससे वह बच नहीं सकती है| यह अलग बात है कि केन्द्र की वर्तमान यूपीए सरकार लोकपाल कानून के बारे में बुरी तरह से फंस चुकी है| जानकारों का मानना है कि केन्द्र सरकार इस बारे में अन्ना हजारे और अन्ना हजारे के पीछे  खड़े राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) को इस बात का श्रेय नहीं लेने देना चाहती कि उनके दबाव में लोकपाल कानून बनाया गया है| क्योंकि राजनीति में इस प्रकार के निर्णयों का चुनावों में असर होता है| लेकिन आम जनता को इस बात से क्या लेना देना है? कॉंग्रेस या यूपीए ने ऐसी स्थिति क्यों निर्मित होने दी कि अन्ना, आरएसएस या भाजपा या एनडीए या अन्य विपक्षी दलों को लोकपाल कानून बनवाने का श्रेय मिलने की स्थिति बनी! निश्‍चय ही यह वर्तमान यूपीए और कॉंग्रेस नेतृत्व की राजनैतिक असफलता है| जिसका फायदा दूसरे राजनैतिक उठाना चाहते हैं, तो उनका राजनैतिक अधिकार है| इसमें गलत भी क्या है? अब भी यदि कॉंग्रेस दुविधा से बाहर नहीं निकल पायी तो फिर उसे और यूपीए को होने वाले नुकसान की लम्बे समय तक भरपाई कर पाना सम्भव नहीं होगा| अत: बेहतर यही होगा कि केन्द्र सरकार न मात्र लोकपाल कानून को लाये ही, बल्कि सच्चे अर्थों में लोकपाल कानून बनाकर संसद में पेश करे| जिससे देश और देश की जनता को भ्रष्टाचार, अनाचार और गैर-कानूनी कुकृत्यों से मुक्ति मिल सके|

वर्तमान में इस बात की बहस भी चल रही है कि लोकपाल के दायरे में कौन हो और कौन नहीं हो| निश्‍चय ही यह महत्वपूर्ण और विचारणीय मुद्दा है| जिस पर राष्ट्रीय सोच और राष्ट्रहित के साथ-साथ देश के सभी वर्गों का विशेषकर कमजोर वर्गों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है| अत: प्रस्तावित लोकपाल कानून बनाते समय ध्यान रखा जावे कि-

1. बिना किसी किन्तु-परन्तु के देश का प्रत्येक लोक सेवक लोकपाल के दायरे में आना चाहिये| लोक सेवक के दायरे में छोटे से छोटे जनप्रतिनिधि से लेकर प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति तक हर एक उस व्यक्ति को आना चाहिये जो जनता से संग्रहित धन से वेतन लेता हो या जनता से संग्रहित धन को खर्चे करने के बारे में निर्णय लेने का कानूनी या संवैधानिक अधिकार रखता हो| जिसमें न्यायपालिका और सेना भी शामिल हों|

2. सभी औद्योगिक घराने, गैर-सरकारी संगठन (चाहे सरकारी अनुदान लेते हों या नहीं), सभी गैर-सरकारी शिक्षण या अन्य संस्थान, खेल संघ और ऐसा प्रत्येक सरकारी या गैर सरकारी या निजी निकाय या उपक्रम जिसके पास जनता से किसी भी कारण से किसी भी रूप में धन संग्रहित करने और उसे खर्च करने का हक हो उसे बिना किसी भी किन्तु-परन्तु के प्रस्तावित लोकपाल कानून के दायरे में होना ही चाहिये|

3. सभी प्रकार की ऐसी जॉंच ऐजेंसियॉं, जिन्हें किसी भी प्रकार के मामले की जॉंच करने का हक हो उन्हें भी प्रस्तावित लोकपाल कानून के दायरे में होना चाहिये| जिनमें नीचे से ऊपर तक सभी लोक सेवकों की नियुक्ति, पदोन्नति और बर्खास्तगी का अधिकार केवल लोकपाल के पास ही होना चाहिये|

4. प्रस्तावित लोकपाल कानून में भ्रष्टाचार की परिभाषा को विस्तिृत और सुस्पष्ट करने की जरूरत है| जिसमें प्रत्येक ऐसे गैर-कानूनी कृत्य को जिसमें धन, बजट, अनुदान, शुल्क बजट,विज्ञापन, कर आदि को किसी भी प्रकार से धन समावेश हो वह मामला भ्रष्टाचार से सम्बन्धित होने के कारण प्रस्तावित लोकपाल कानून के दायरे में आना चाहिये| इसके अन्तर्गत समस्त प्रकार का मीडिया, बजट का मनमाना और गैर-कानूनी उपयोग करने वाले लोक सेवकों को शामिल किया जाना बेहद जरूरी है| इससे मीडिया की मनमानी और ब्यूराक्रेसी की भेदभावपूर्ण कुनीतियों पर भी अंकुश लग सकेगा|

5. प्रस्तावित लोकपाल कानून में यह स्पष्ट रूप से व्यवस्था होनी चाहिये कि इसमें देश के सभी सम्प्रदायों और वर्गों को बारी-बारी से अवसर मिलेंगे| इसमें कम से कम 50 फीसदी स्त्रियों सहित, अल्पसंख्यकों, पिछड़ा वर्ग और दलित-आदिवासी वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सशक्त हिस्सेदारी देने की सुनिश्‍चित व्यवस्था भी होनी चाहिये|

6. लोकपाल की औपचारिक नियुक्ति बेशक राष्ट्रपति द्वारा की जावे, लेकिन लोकपाल के चयन का अधिकार किसी भी राजनेता और पूर्व ब्यूरोक्रेट के पास नहीं होना चाहिये| बल्कि लोकपाल का चयन करने के लिये देश के निष्पक्ष कानूनविदों, न्यायविदों और सामाज के निष्पक्ष लोगों के संवैधानिक चयन मण्डल द्वारा होना चाहिये| बाद के चयनों में सेवा निवृत लोकपालों को भी शामिल किया जा सकता है|

7. लोकपाल को हटाने के लिये एक संवैधानिक निकाय होना चाहिये, जिसमें एक भी ऐसा व्यक्ति शामिल नहीं हो, जो लोकपाल के चयन मण्डल में भागीदार रहा हो| लोकपाल के अधीन सभी लोक सेवकों के विरुद्ध देश के हर एक व्यक्ति को कानूनी कार्यवाही प्रारम्भ कराने के लिये न्यायपालिका के समक्ष अर्जी देने का पूर्ण हक दिया जावे|

9.12.11

भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के हर एक सदस्य को मिल सकेगा फोटो कार्ड

भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के सदस्यों की वर्षों पुरानी मांग मंजूर बास के हर एक सदस्य को मिल सकेगा फोटो कार्ड
बास अध्यक्ष डॉ. मीणा ने जो निर्णय लिया है, उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि देर आये दुरुस्त आये| डॉ. मीणा ने अपने सहयोगियों से विचार विमर्श करके जो परिपत्र जारी किया है, उसके अनुसार न मात्र प्रत्येक प्राथमिक और सक्रिय सदस्य को बहुत कम शुल्क एवं खर्चे पर फोटो कार्ड जारी किया जा सकेगा, बल्कि फोटो कार्ड बीस वर्ष तक की लम्बी अवधि के लिये जारी किया जा सकेगा|
जयपुर| भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के सदस्यों की ओर से बास की स्थापना के समय से ही मांग की जाती रही है कि हर सदस्य को बास का फोटो कार्ड जारी किया जावे| जिसे बास का नेतृत्व अठारह वर्ष तक टालता रहा, लेकिन अब बास के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने न मात्र सदस्यों की इस मांग को स्वीकार किया है, बल्कि फोटो कार्ड के शुल्क में भारी कमी करते हुए सभी सदस्यों को फोटो कार्ड जारी करने का परिपत्र जारी किया है| बास अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने जो निर्णय लिया है, उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि "देर आये दुरुस्त आये|" डॉ. मीणा ने अपने सहयोगियों से विचार विमर्श करके जो परिपत्र जारी किया है, उसके अनुसार न मात्र प्रत्येक प्राथमिक और सक्रिय सदस्य को बहुत कम शुल्क एवं खर्चे पर फोटो कार्ड जारी किया जा सकेगा, बल्कि फोटो कार्ड बीस वर्ष तक की लम्बी अवधि के लिये जारी किया जा सकेगा|

गत 7 दिसम्बर को जारी किये गये परिपत्र के अनुसार उक्त सुझावों पर लम्बे समय तक गम्भीर चिन्तन-मनन और विचार-विमर्श करने के बाद सदस्यों की सदस्यों की संस्थागत पहचान के तर्क को जरूरी समझते हुए स्वीकार किया गया है| अत: इस सम्बन्ध में प्राथमिक सदस्यों तथा सक्रिय सदस्यों को उनकी सदस्यता के अनुसार निर्धारित अवधि के लिये फोटो कार्ड जारी करने के सम्बन्ध में जो नियम, नीति और प्रावधान बनाकर जारी किये जाते हैं, वे इस प्रकार हैं|

1. प्राथमिक सदस्यों को फोटो कार्ड जारी करने के लिये 10 नं. फार्म निर्धारित किया गया है| जबकि सक्रिय सदस्यों के लिये 11 नं. फार्म निर्धारित किया गया है| 

2. जो सदस्य यह परिपत्र जारी करने से पूर्व में बास की सदस्यता ग्रहण कर चुके हैं, उन्हें फोटो कार्ड हेतु आवेदन करने से पहले पिछले वित्तीय वर्ष/वर्षों के बकाया वार्षिक अनुदान (यदि कोई है तो) का भी अनिवार्य रूप से भुगतान करना होगा|

3. यह परिपत्र जारी होने के बाद में केवल उन्हीं सदस्यों को इस परिपत्र का लाभ मिलेगा जो 500 रुपये अदा करके आजीवन प्राथमिक सदस्यता ग्रहण करेंगे|

4. छूट प्राप्त करके 200 रुपये अदा करके सदस्यता ग्रहण करने वाले किसी भी सदस्य पर उक्त दोनों शर्त लागू नहीं होंगी|

5. प्राथमिक सदस्य एवं सक्रिय सदस्य का फोटो कार्ड प्राप्त करने के लिये पिछले वित्तीय वर्षों के बकाया वार्षिक अनुदान के अलावा निर्धारित अवधि के अनुसार शुल्क, अनुदान एवं खर्चा निम्न सारणी में दर्शाये अनुसार फार्म के साथ में अग्रिम भुगतान करना होगा :-
वैधता अवधि    फोटो कार्ड शुल्क    प्रक्रिया शुल्क    न्यूज पेपर शुल्क   अनुदान   कुल खर्चा        औसत वार्षिक
1 वर्ष                100                       050                 250                        100         0500         500 
05 वर्ष              400                      100                  600                        400         1500         300 
10 वर्ष              400                      100                  1100                      400          2000        200
20 वर्ष              400                      100                  2100                      400          3000        150

6. जो पुराने सदस्य न्यूज पेपर का पहले से ही आजीवन शुल्क जमा करवा चुके हैं, उन्हें उक्त सारणी के अनुसार किसी भी अवधि के लिये फोटो कार्ड का आवेदन करते समय न्यूज पेपर शुल्क का भुगतान नहीं करना होगा|

7. सारणी के अनुसार फोटो कार्ड प्राप्त करने वाले प्राथमिक सदस्य यदि भविष्य में सक्रिय सदस्यता की पात्रता अर्जित कर लेंगे तो उन्हें शेष अवधि के लिये सक्रिय सदस्य का फोटो कार्ड मुफ्त में जारी किया जायेगा| उन्हें मात्र प्रक्रिया शुल्क का ही भुगतान करना होगा|

8. एक बार किसी भी अवधि के लिये फोटो कार्ड का शुल्क/खर्चा/अनुदान संस्थान को प्राप्त/जमा होने के बाद, किसी भी स्थिति में फोटो कार्ड का शुल्क/खर्चा/अनुदान वापस नहीं होगा और फोटो कार्ड की वैधता अवधि समाप्ति से पूर्व/मध्यावधि में, अधिक अवधि के लिये या अन्य किसी पदस्थिति के अनुसार फोटो कार्ड जारी करवाने का आग्रह/आवेदन करने पर पिछला जमा शुल्क/प्रक्रिया शुल्क समायोजित (एडजेस्ट) नहीं किया जायेगा|

9. जिन प्राथमिक एवं सक्रिय सदस्यों को इस परिपत्र के अनुसार फोटो कार्ड जारी किये जायेंगे, उनके अधिकार एवं कर्त्तव्य निम्न प्रकार निर्धारित होंगे :-

(1) संस्थान के संविधान, नियमों, निर्णयों का पालन करें| न्यूज पेपर का लगातार अध्ययन करते हुए अनुशासित, सजग, सतर्क और जागरूक नागरिक बनें| 

(2) संस्थान के पदाधिकारियों के द्वारा/लिये आयोजित सभी कार्यक्रमों, आयोजनों, बैठकों प्रशिक्षण शिविरों आदि में शामिल होने लिये अधिकृत होंगे|

(3) संस्थान के पदाधिकारियों के सभी कार्यक्रमों, आयोजनों, बैठकों प्रशिक्षण शिविरों सक्रिय रूप से भागीदारी और अन्य प्रकार का सहयोग करते रहें|

(4) फोटो कार्ड प्राप्ति के बाद संस्थान के विकास और विस्तार के लिये कार्य करते हुए लागातार स्थानीय और उच्च नेतृत्व के सम्पर्क में रहें|

(5) फोटो कार्ड प्राप्ति के फॉर्म 10 व 11 नं. में वर्णित तथा फोटो कार्ड के साथ जारी दिशा-निर्देशों और कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करें|

10. उक्त बिन्दु 9 में वर्णित अधिकार एवं कर्त्तव्यों का निर्वाह नहीं करने वाले फोटो कार्डधारी सदस्यों को कभी भी फोटो कार्ड से वंचित किया जा सकेगा|

11. स्पष्टीकरण : उक्त परिपत्र के बारे में कोई बात/तथ्य अस्पष्ट होने पर उसका स्पष्टीकरण करने का अन्तिम अधिकार केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष को होगा|

12. यह परिपत्र तत्काल प्रभाव से (अर्थात दि. : 07.12.2011) से लागू हो गया है|

20.11.11

विदेशों से केवल तकनीक ही नहीं, इंसाफ करना भी सीखें!

प्रेसपालिका न्यूज ब्यूरो

भारत में विदेशी वस्तुओं और तकनीक को अपनाने वालों की अच्छी खासी तादाद है| विदेशी सामग्री को अपनाने के प्रति हर आम-ओ-खास में शर्म नहीं, बल्कि गर्व का भाव है| इस प्रकार से आजादी के समय में विदेशी कपड़ों की होली जलाने का भाव अब भारत में ध्वस्त हो चुका है| अब तो स्वदेशी की बात करने वाले और संत महात्मा भी आधुनिक सुविधा सम्पन्न जीवन शैली एवं वातानुकूलित संयन्त्रों में जीवन जीने के आदी हो चुके हैं| ऐसे में यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि आज वैश्‍विक अर्थव्यवस्था तथा अन्तरजाल (इंटरनैट) के युग में केवल भारत की विरासत और सोच को ही सर्वश्रेष्ठ कहने वालों को अब अपनी परम्परागत सोच पर पुनिर्विचार करके खुले दिमाग और उदारता से सोचने की जरूरत है, जिससे कि हम संसार के किसी भी कोने में अपनायी जाने वाली अच्छी बातों और नियमों को देश में खुशी-खुशी अपना सकें|

आज की कड़वी सच्चाई यह है कि केवल हम ही नहीं, बल्कि सारा संसार विकसित देशों का पिछलग्गू बना हुआ है| जिसका कारण विकसित देशों की जीवन शैली है, लेकिन हमारा मानना है कि किसी भी बात को आँख बन्द करके अपनाने की जरूरत नहीं है, बल्कि जो बात, जो सोच और जो विचार हमारे देश के लोगों के जीवन को बदलने वाले हों, उन्हें मानने, स्वीकरने और अपनाने में कोई आपत्ति या झिझक नहीं होनी चाहिये| जैसे कि हम कम्प्यूटर तकनीक को हर क्षेत्र में अपना रहे हैं, जिससे जीवन में क्रान्तिकारी बदलाव आये हैं| जो काम व्यक्तियों का बहुत बड़ा समूह सालों में भी नहीं कर पाता, उसी कार्य को कम्प्यूटर तकनीक के जरिये कुछ पलों में पूर्ण शुद्धता (एक्यूरेसी) से आसानी किया जा सकता है| ऐसे में हमारे जीवन और व्यवस्था से जुड़ी अन्य बातों को भी हमें सहजता और उदारता से अपनाने की जरूरत है|

इसी प्रसंग में संयुक्त राज्य अमेरिका की न्यायिक व्यवस्था के एक उदाहरण के जरिये भारत की न्यायिक व्यवस्था में बदलाव के लिये यहॉं एक विचार प्रस्तुत किया जा रहा है| जिस पर भारत के न्यायविदों, नीति नियन्ताओं और विधि-निर्माताओं को विचार करने की जरूरत है| इसके साथ-साथ आम लोगों को भी इस प्रकार के मामलों पर अपनी राय को अपने जनप्रतिनिधियों के जरिये संसद तथा विधानसभाओं तक पहुँचाने की भी सख्त जरूरत है|

यहॉं सबसे पहले यह बतलाना जरूरी है कि अमेरिका में हर एक राज्य का संविधान और सुप्रीम कोर्ट अलग होते हैं| जो प्रत्येक राज्य की विशाल और स्थानीय सभी जरूरतों तथा आशाओं को सही अर्थों में पूर्ण करते हैं| प्रस्तुत मामले में अमेरिका के मिस्सिस्सिपी राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग बनाम जस्टिस टेरेसा ब्राउन डीयरमैन मामले में सुनाये गये निर्णय दिनांक 13.04.2011 के कुछ तथ्य पाठकों के चिन्तन और विचारार्थ प्रस्तुत हैं|

मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग ने वहॉं के सुप्रीम कोर्ट की जज डीयरमैन के विरुद्ध दिनांक 19.01.2011 को औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई| डीयरमैन पर आरोप लगाया कि उन्होंने जजों के लिये लागू आचार संहिता के निम्न सिद्धांतों का उल्लंघन किया :-

(1) न्यायिक निष्ठा को संरक्षित करने के आचरण के उच्च मानकों को स्थापित करने, बनाये रखने और लागू करना|

(2) जज द्वारा हमेशा इस प्रकार कार्य करना कि उससे न्यायपालिका की निष्ठा व निष्पक्षता में जन विश्वास बढे|

(3) जज द्वारा अपने पद की साख को अन्य व्यक्ति के हित साधन के लिए उपयोग में नहीं लाना|

(4) जज द्वारा कानून का विश्‍वासपूर्वक पालना करना और व्यक्तिगत हितों के लिए कार्य करने से दूर रहना|

उपरोक्त सिद्धान्तों का उल्लंघन करके वहॉं के एक कोर्ट की जज डीयरमैन ने प्रथम न्यायिक फ्लोरिडा जिला सर्किट न्यायालय के जज लिंडा एल नोबल्स को दिनांक 05.11.2010 को एक टेलीफोन किया और अपने एक पुराने मित्र के पक्ष में सिफारिश करके उसे जमानत पर छोड़ने के लिये संदेश छोड़ा| यद्यपि उक्त फोन संदेश से पूर्व ही मामले की सुनवाई हो चुकी थी, जिससे जिला कोर्ट के निर्णय पर संदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन जस्टिस डीयरमैन के विरुद्ध आरोप लगाये गये, जिन्हें स्वयं डीयरमैन ने भी स्वीकार कर लिया| डीयरमैन का आचरण मिस्सिस्सिपी राज्य के संविधान की धारा 177 ए के अंतर्गत भी दंडनीय होने के कारण और आचरण संहिता के उल्लंघन का आरोप लगने के बाद जस्टिस डीयरमैन स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रता़ड़ित किये जाने और 100 डॉलर (5000 रुपये) तक के खर्चे के दंडादेश को भुगतने के लिए भी स्वेच्छा से सहमत हो गयी| इसके बाद वहॉं के राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस डीयरमैन को दोषी मानते हुए तीस दिन के लिए अवैतनिक निलंबन, सार्वजनिक प्रताड़ना और 100 डॉलर खर्चे का दण्डादेश जारी किया गया|

इसके विपरीत भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश न्यायिक अधिकारी संघ (1994 एससीसी 686) के मामले में सुनाये गये निर्णय में किसी भी जज के विरुद्ध मुख्य न्यायाधीश की अनुमति के बिना मामला दर्ज करने तक पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा रखा है और भारत में तकरीबन सभी न्यायालयों द्वारा अमेरिका के उक्त मामले जैसे मामलों को तुच्छ मानते हुए कोई संज्ञान तक नहीं लिया जाता है| यह भारतीय न्याय व्यवस्था के लिये घोर चिंता और आम लोगों तथा संसद के लिये विचार का विषय है|

तथ्य संग्रह : मनीराम शर्मा, एडवोकट, लेखन एवं सम्पादन : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

10.11.11

श्री खेम चंद सोनी को किसी समिती में फोटो कार्ड धारी सक्रिय कार्यकर्त्ता नियुक्त किया जा सकता है!

09 नवम्बर, 11 को श्री खेम चंद सोनी-1004739, Jay Shree Krishna Consultancy Services, 7-Vijay House, Parth Tower, New Vadaj, Ahmedabad, Gujarat, Mob : 087582-14966, Ph : 079-27641562, E-Mail :jaykrishana@yahoo.co.in ने अग्रिम समय लेकर और जयपुर आकर बास राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

6.11.11

धार्मिकता के मापदंड स्वयं भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं!

मुद्दा: कानून से ज्यादा नैतिक निर्माण की जरूरत
धीरे-धीरे एक आम भावना घर करती जा रही है कि हर समस्या का हल कानून बनाकर किया जा सकता है। अन्ना हजारे और उनके सहयोगी भ्रष्टाचार को रोकने या खत्म करने के लिए एक मजबूत कानून पारित कराना

27.10.11

सरकार की संविधान विरोधी नीतियाँ!

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में

16.9.11

आरोप, अभियोग और महाअभियोग


अनुशासनहीनता करने या कानून का उल्लंघन करने पर लोक सेवकों के विरुद्ध आरोप लगाये जाते हैं, अभियोग चलाये जाते हैं और दोष सिद्ध होने पर उन्हें दण्डित भी किया जाता है, लेकिन लोक सेवक की परिभाषा में शामिल होने के उपरान्त भी हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ आमतौर पर न तो किसी प्रकार का आरोप लगाया जाता है और न हीं उनके खिलाफ कोई अभियोग चलाया जाता है| हाँ यदि कोई भयंकर मामला बन जाये तो हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के जजों के

14.9.11

प्रेसपालिका सम्पादक डॉ. मीणा सहित पांच को 'आइसना' राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान

भोपाल| झीलों के शहर और मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित रवीन्द्र भवन में राजस्थान की राजधानी जयपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय पाक्षिक समाचार-पत्र ‘प्रेसपालिका’ के सम्पादक और विभिन्न विषयों के ख्याति प्राप्त लेखक, चिन्तक एवं विश्‍लेषक डॉ. पुरुषोत्तम मीणा को ‘राष्ट्रीय आइसना पत्रकारिता सम्मान’ से सम्मानित किया गया|

ऑल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन की ओर से देश के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष

7.9.11

सुप्रीम कोर्ट में दो करोड़ 39 लाख मेडीकल खर्च का रिकॉर्ड ही नहीं?

सूचना अधिकार कानून के तहत हुआ खुलासा

सुप्रीम कोर्ट में दो करोड़ 39 लाख 

मेडीकल खर्च का रिकॉर्ड ही नहीं?
सुप्रीम कोर्ट के मामले में सीआईसी की बोलती बन्द क्यों हो जाती है?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

जनता की गा़ढ़ी कमाई से टैक्स के जरिये संग्रहित सरकारी खजाने से यदि एक रुपया भी किसी मद पर खर्च होता है तो उसका बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाना कठोर कानूनी व्यवस्था है| किसी को भी, किसी भी मद पर किसी भी प्रकार का नगद या चैक से भुगतान किया जाता है तो उसका स्पष्ट लेखा-जोखा रखा जाता है| जिसके लिये हर सरकारी दफ्तर में लेखा अधिकारी नियुक्त हैं, जो इस काम के बदले सरकारी खाजने से वेतन पाते हैं|

5.9.11

नीम-हकीमी न्याय व्यवस्था!


भ्रष्टाचार, अत्याचार, भेदभाव, मनमानी और गैर-बराबरी की जननी
नीम-हकीमी न्याय व्यवस्था
विधायिका और कार्यपालिका को तो नहीं दिखती,
लेकिन न्यायपालिका क्यों चुप है?
जबकि अपने ऊपर सवाल उठाने मात्र
से तत्काल सबकुछ नजर आने लगता है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

सच बात तो ये है कि जमीन जायदाद आदि से सम्बन्धित सभी प्रकार के आपसी या सरकार से जुड़े सभी विवादों का निपटारा करने की जिम्मेदारी अंग्रेजों द्वारा स्थापित दीवानी कानूनी व्यवस्था के तहत आज भी कानून जानकारी के मामले में शून्य तहसीलदार, डिप्टी कलेक्टर, कमिश्‍नर और राजस्व बोर्ड को सौंपी हुई है| जिनके समक्ष सभी पक्षकारों की ओर से मामला

18.8.11

भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान की रैली में 11 प्रस्ताव पास!




राष्ट्र सेवा को समर्पित डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-बास
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
पृथ्वीराज सोनी-जिला अध्यक्ष-जयपुर

जिला शाखा : जयपुर, राजस्थान  
: प्रेस नोट :




भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान की रैली में 11 प्रस्ताव पास!







जयपुर पुलिस आयुक्त कार्यालय के सामने रैली शुरू होने से 
पूर्व बास के बैनर के साथ एक बालक और महिला कार्यकर्ता 

रैली के बाद उद्योग मैदान स्टेच्यू सर्किल, जयपुर
में सभा को सम्बोधित करते डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

रैली के बाद उद्योग मैदान स्टेच्यू सर्किल, जयपुर
में सभा को सम्बोधित करते डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
वर्ष 1993 में स्थापित और 1994 से भारत सरकार अधीन दिल्ली से पंजीबद्ध ‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)’ के देश के 18 राज्यों में सेवारत पांच हजार से अधिक आजीवन सदस्यों की ओर से राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

17.8.11

विषय : 18 अगस्त को भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) द्वारा जयपुर में रैली एवं सभा का आयोजन|


भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
जिला शाखा : जयपुर (राजस्थान)

-: प्रेस नोट :-


विषय : 18 अगस्त को भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) द्वारा जयपुर में रैली एवं सभा का आयोजन|


16.8.11

सूचना अधिकार : सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्याख्या


आजादी के बाद से आज तक के इतिहास में सूचना का अधिकार कानून इस देश के लोगों के लिये किसी भी सरकार की ओर से दिया गया सबसे बड़ा और ताकतवर तथा सटीक हथियार है| इस सूचना के अधिकार को

12.8.11

विभागीय जॉंच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा-2

कुछ समय पूर्व मैंने एक आलेख ‘‘विभागीय जॉंच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा!’’ शीर्षक से लिखा था, जो अनेक हिन्दी न्यूज पोर्टल्स तथा समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो चुका है| यह लेख ‘बासवोइस’ ब्लॉग पर भी उपलब्ध हैं, जिपर श्री बेनीवाल जी नामक एक पाठक ने निम्न टिप्पणी की है :-

19.7.11

विभागीय जॉंच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
Dr. Purushottam Meena 'Nirankush
सम्पादक-प्रेसपालिका (पाक्षिक)
Jaipur (Raj.) 98285-02666
इन दिनों देशभर में लोकपाल कानून को बनाये जाने और लोकपाल के दायरे में ऊपर से नीचे तक के  सभी स्तर के लोक सेवकों को लाने की बात पर लगातार चर्चा एवं बहस हो रही है| सरकार निचले स्तर के लोक सेवकों को लोकपाल की जॉंच के दायरे से मुक्त रखना चाहती है, जबकि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि सभी लोक सेवकों को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं| ऐसे में लोक सेवकों को वर्तमान में दण्डित करने की व्यवस्था के बारे में भी विचार करने की जरूरत है| इस बात को आम लोगों को समझने की जरूरत है कि लोक सेवकों को अपराध करने पर सजा क्यों नहीं मिलती है|

लोक सेवकों को सजा नहीं मिलना और लोक अर्थात् आम लोगों को लगातार उत्पीड़ित होते रहना दो विरोधी और असंवैधानिक बातें हैं| नौकर मजे कर रहे हैं और नौकरों की मालिक आम जनता अत्याचार झेलने को विवश है| आम व्यक्ति से भूलवश जरा सी भी चूक हो जाये तो कानून के कथित रखवाले ऐसे व्यक्ति को हवालात एवं जेल के सींखचों में बन्द कर देते हैं| जबकि आम जनता की रक्षा करने के लिये तैनात और आम जनता के नौकर अर्थात् लोक सेवक यदि कानून की रक्षा करने के बजाय, स्वयं ही कानून का मखौल उड़ाते पकडे़ जायें तो भी उनके साथ कानूनी कठोरता बरतना तो दूर किसी भी प्रकार की दण्डिक कार्यवाही नहीं की जाती! आखिर क्यों? क्या केवल इसलिये कि लोक सेवक आम जनता नहीं है या लोक सेवक बनने के बाद वे भारत के नागरिक नहीं रह जाते हैं? अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि भारत के संविधान के भाग-३, अनुच्छेद १४ में इस बात की सुस्पष्ट व्यवस्था के होते हुए कि कानून के समक्ष सभी लोगों को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण भी प्राप्त होगा, भारत का दाण्डिक कानून लोक सेवकों के प्रति चुप्पी साध लेता है?

पिछले दिनों राजस्थान के कुछ आईएएस अफसरों ने सरकारी खजाने से अपने आवास की बिजली का बिल जमा करके सरकारी खजाने का न मात्र दुरुपयोग किया बल्कि सरकारी धन जो उनके पास अमनत के रूप में संरक्षित था उस अमानत की खयानत करके भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के तहत वर्णित आपराधिक न्यासभंग का अपराध किया, लेकिन उनको गिरफ्तार करके जेल में डालना तो दूर अभी तक किसी के भी विरुद्ध एफआईआर तक दर्ज करवाने की जानकारी समाने नहीं आयी है| और ऐसे गम्भीर मामले में भी जॉंच की जा रही है, कह कर इस मामले को दबाया जा रहा है| हम देख सकते हैं कि जब कभी लोक सेवक घोर लापरवाही करते हुए और भ्रष्टाचार या नाइंसाफी करते हुए पाये जावें तो उनके विरुद्ध आम व्यक्ति की भांति कठोर कानूनी कार्यवाही होने के बजाय, विभागीय जॉंच की आड़ में दिखावे के लिये स्थानान्तरण या ज्यादा से ज्यादा निलम्बन की कार्यवाही ही की जाती है| यह सब जानते-समझते हुए भी आम जनता तथा जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि चुपचाप यह तमाशा देखते रहते हैं| जबकि कानून के अनुसार लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ भारतीय आपराधिक कानूनों के तहत दौहरी दण्डात्मक कार्यवाही किये जाने की व्यवस्था है|

IAS OFFICERS
इस प्रकार की घटनाओं में पहली नजर में ही आईएएस अफसर उनके घरेलु बिजली उपभोग के बिलों का सरकारी खजाने से भुगतान करवाने में सहयोग करने वाल या चुप रहने वाले उनके साथी या उनके अधीनस्थ भी बराबर के अपराधी हैं| जिन्हें वर्तमान में जेल में ही होना चाहिये, लेकिन सभी मजे से सरकारी नौकरी कर रहे हैं| ऐसे में विचारणीय मसला यह है कि जब आईएएस अफसर ने कलेक्टर के पद पर रहेतु अपने दायित्वों के प्रति न मात्र लापरवाही बरती है, बल्कि घोर अपराध किया है तो एसे अपराधियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता एवं भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत तत्काल सख्त कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? नीचे से ऊपर तक सभी लोक सेवकों के मामलों में ऐसी ही नीति लगातार जारी है| जिससे अपराधी लोक सेवकों के होंसले बुलन्द हैं!

इन हालातों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकारी सेवा में आने से कोई भी व्यक्ति महामानव बन जाता है? जिसे कानून का मखौल उड़ाने का और अपराध करने का ‘विभागीय जॉंच’ रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच मिला हुआ है| जिसकी आड़ में वह कितना ही गम्भीर और बड़ा अपराध करके भी सजा से बच निकलता है| जरूरी है, इस असंवैधानिक और मनमानी व्यवस्था को जितना जल्दी सम्भव हो समाप्त किया जावे| इस स्थिति को सरकारी सेवा में मेवा लूटने वालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता| क्योंकि सभी चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं, जो हमेशा अन्दर ही अन्दर एक-दूसरे को बचाने में जुटे रहते हैं| आम जनता को ही इस दिशा में कदम उठाने होंगे| इस दिशा में कदम उठाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं है| क्योंकि विभागीय जॉंच कानून में भी इस बात की व्यवस्था है कि लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ आपराधिक मुकदमे दायर कर आम व्यक्ति की तरह लोक सेवकों के विरुद्ध भी कानूनी कार्यवाही की जावे| जिसे व्यवहार में ताक पर उठा कर रख दिया गया लगता है|

अब समय आ गया है, जबकि इस प्रावधान को भी आम लोगों को ही क्रियान्वित कराना होगा| अभी तक पुलिस एवं प्रशासन कानून का डण्डा हाथ में लिये अपने पद एवं वर्दी का खौफ दिखाकर हम लोगों को डराता रहा है, लेकिन अब समय आ गया है, जबकि हम आम लोग कानून की ताकत अपने हाथ में लें और विभागीय जॉंच की आड़ में बच निकलने वालों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दर्ज करावें| जिससे कि उन्हें भी आम जनता की भांति कारावास की तन्हा जिन्दगी का अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो सके और जिससे आगे से लोक सेवक, आम व्यक्ति को उत्पीड़ित करने तथा कानून का मखौल उड़ाने से पूर्व दस बार सोचने को विवश हों|
लेखक : सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित और अठारह राज्यों में प्रसारित हिन्दी पाक्षिक)  तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
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अन्य अनेक साईट्स के आलावा मेरा उक्त लेख प्रवक्ता डोट कॉम पर भी प्रकाशित हुआ है| जिसका लिंक नीचे प्रस्तुत है :


http://www.pravakta.com/story/27274


उक्त लिंक पर एक पाठक श्री अनिल गुप्ता जी ने निम्न टिप्पणी की :
Anil Gupta,Meerut,India

लोकसेवकों को गुनाह करने पर सजा अवश्य मिलनी चाहिए. लेकिन अनेक बार ये देखा गया है की भ्रष्ट लोकसेवक साफ़ बच जाते हैं क्योंकि उनसे कोई नाराज़ नहीं होता जबकि ईमानदारी से काम करने वाले मारे जाते हैं क्योंकि ईमानदारी से काम करने के कारण अनेक लोग उनसे नाराज़ होकर फर्जी शिकायतें कर देते हैं और छोटी मोती तकनिकी कमियों का आधार लेकर उन्हें भरी सजा मिल जाती है. ऐसे मामलों में क्या होना चाहिए?


उपरोक्त टिप्पणी के प्रतिउत्तर में मेरी और से लिखी गयी टिप्पणी नीचे प्रस्तुत है : 




श्री अनिल गुप्ता जी,
 सबसे पहले तो इस आलेख पर टिप्पणी लिखने के लिए आभार और धन्यवाद| अन्यथा कुछ पाठकों को तो इस प्रकार के विषय टिप्पणी करने के लिए उपयुक्त ही नहीं लगते, क्योंकि इस प्रकार के विषय शान्त समाज में वैमनस्यता फ़ैलाने में सहायक नहीं होते हैं| ऐसे में आपकी टिप्पणी न मात्र स्वागत योग्य और सराहनीय है, बल्कि मेरे लिये विचारणीय भी है|
आपने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि-‘‘लोकसेवकों को गुनाह करने पर सजा अवश्य मिलनी चाहिए. लेकिन अनेक बार ये देखा गया है की भ्रष्ट लोकसेवक साफ़ बच जाते हैं क्योंकि उनसे कोई नाराज़ नहीं होता जबकि ईमानदारी से काम करने वाले मारे जाते हैं क्योंकि ईमानदारी से काम करने के कारण अनेक लोग उनसे नाराज़ होकर फर्जी शिकायतें कर देते हैं और छोटी मोती तकनिकी कमियों का आधार लेकर उन्हें भरी सजा मिल जाती है. ऐसे मामलों में क्या होना चाहिए?’’
श्री अनिल गुप्ता जी, आपकी बात सही है और व्यवहार में कुछ ईमानदार लोक सेवकों के साथ ऐसा होता भी है| लेकिन मैं स्वयं करीब इक्कीस वर्ष तक भारत सरकार की सेवा में लोक सेवक रहा हूँ और मुझे कभी इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ा| इसका कारण ये भी रहा कि मेरा पब्लिक से सीधा डीलिंग नहीं था| लेकिन मैंने ऐसी शिकायतें करते हुए अनेक लोक सेवक देखें हैं, जो पूरी तरह से ईमानदार रहे हैं| मैं कोई ऑथोरिटी तो हूँ नहीं, लेकिन फिर भी अपने अनुभवों के आधार पर कुछ बातें इस बारे में सार्वजनिक करना चाहता हूँ :-
-यह बात सही है कि कुछ लोक सेवक सच्चे और ईमानदार होते हैं, लेकिन उनमें से अनेक अपने कार्य के प्रति निष्ठावान नहीं होते और वे अपनी ईमानदारी को अपने अहंकार से जोड़ लेते हैं| इस कारण वे बाहरी और विभागीय लोगों में अप्रिय हो जाते हैं| ऐसे में यही माना जाता है कि ‘‘एक तो करेला और ऊपर से नीम चढ़ा!’’ अर्थात् ईमादार और अहंकारी ये दो बातें आज के भ्रष्ट और पददलित सरकारी महकमें में सम्भव नहीं| वैसे तो प्रत्येक लोक सेवक को ईमानदार एवं नम्र होना चाहिए, लेकिन ईमानदार लोक सेवक को अवश्य ही नम्र होना चाहिए, ये हर एक ईमानदार लोक सेवक के लिए बहुत जरूरी योग्यता है|
-कुछ ईमानदार लोक सेवक ऐसे होते हैं, जो केवल अपनी ईमानदारी का ढोल पीटते रहते हैं और कुछ न कुछ बहाने बनाकर या नुक्ताचीनी करके काम को टालते रहते हैं| नियमों का हवाला देकर काम नहीं करते हैं|
-कुछ ईमानदार लोक सेवक इस कारण से ईमानदार होते हैं क्योंकि वे रिश्वत चाहते तो हैं, लेकिन उन्हें कोई देता नहीं या उनमें रिश्वत लेने की हिम्मत या कूबत नहीं होती और इस कारण से वे जनता के काम करने के बजाय, जैसा कि आपने लिखा है, तकनीकी कारणों से बहाना बनाकर काम को टालते रहते हैं| ऐसे लोगों को हमेशा परेशानी झेलनी पड़ती हैं|
-उपरोक्त के आलावा ये बात भी सही है कि आजकल भ्रष्ट लोक सेवकों की संख्या अधिक होने के कारण, नियमों के बहाने या तकनीकी कारणों से काम समय पर नहीं करने वाले लोक सेवकों को संदेह की नज़र से देखा जाता है और ऐसे लोक सेवकों की शिकायत भी कर दी जाती है| शिकायत मिलने पर अधिकतर भ्रष्ट हो चुके अफसर ऐसे ईमानदार जीवों के विरुद्ध तत्काल कठोर कार्यवाही करते हैं और ऐसे ईमानदार लोक सेवक को सजा मिलने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है|
शायद आपने यही पूछा है कि ऐसे में क्या किया जाये?
मैं कोई विशेषज्ञ तो हूँ नहीं, लेकिन जो कुछ देखा, सुना, पढ़ा, अनुभव किया और आत्मसात किया है, उसके आधार पर अपने विचार बतला सकता हूँ :-
१-एक महत्वपूर्ण बात ये है कि हमारे देश का इतिहास साक्षी है कि जिस काल को राम राज्य कहा जाता है, उसमें भी पतिव्रता सीता की अग्नी-परीक्षा ली गयी थी! अर्थात सच्चे और अच्छे लोगों को सदैव अपनी अच्छाई और सच्ची बातों को (जो आम तौर पर कड़वी होती हैं) सिद्ध करने में सक्षम और समर्थ होना चाहिए| आज के समय में चोर, चालक और भ्रष्ट लोगों के पास पद और धन की शक्ति होती है, जिसका वे उन लोगों के खिलाफ भी जमकर उपयोग करते हैं, जो उनके विधि विरुद्ध कार्यों में रोड़ा बनते हैं! चाहे ऐसे लोग विभागीय लोक सेवक हों या आम जनता या जनप्रतिनिधि! आज हर एक सरकारी संस्थान में ऐसे ही लोगों का कब्ज़ा है| जिसके कारणों पर विवेचना करने पर विषय लम्बा हो जायेगा|
२-दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि आज की व्यवस्था में लोक सेवक का ईमानदार होना अपराध जैसा है और यदि लोक सेवक छोटे पद पर है और फिर भी वो ईमानदार है तो उसको हर दिन परीक्षा देनी पड़ती है| इसके उपरांत भी अनेक लोक सेवक आज भी ईमानदार हैं! मुझे भी कॉलेज के समय से ही सही, सच्ची और नियम संगत बात कहने की आदत रही है| जिसे सरकारी सेवा में (और यहॉं प्रवक्ता के पाठकों की नज़र में भी) बीमारी समझा जाता है| इसकी मैंने खूब कीमत चुकाई है| हमले सहे हैं, जेल की यात्रा भी करनी पड़ी हैं| लेकिन अंतत: अभी तक मैं जिन्दा हूँ और अपने परिवार की गाड़ी को संचालित कर रहा हूँ| मैंने तो ये सीखा है कि यदि निजी जीवन में या सरकारी सेवा में सच्चा और ईमानदार रहना है तो कुछ बातें अपने जीवन में अपनानी होंगी|
जैसे एक ईमानदार और सच्चे लोक सेवक के लिये निम्न बातें महत्वपूर्ण हैं :-
-हमेशा और हर हाल में बोलने और लिखने में संसदीय और कार्यालयी भाषा का ही उपयोग करें|
-यदि ईश्वर में आस्था हो तो ईश्वर में पूर्ण आस्था रखें|
-अपने कार्य में अधिकाधिक निपुणता हासिल करें|
-अपनी बात निर्भीकता पूर्वक कहने में हिचकें नहीं|
-अपने कार्य को केवल ईमानदारी से ही नहीं करें, बल्कि समय पर और श्रद्धापूर्वक पूर्वक भी करें|
-यदि आपके दायित्व और अधिकार संहिताबद्ध नहीं हैं तो अपना पद संभालते ही अपने बॉस या विभागाध्यक्ष से अपने समस्त अधिकार और दायित्वों की स्पष्ट और पूर्ण जानकारी लिखित में प्राप्त करें| और उसका निष्ठापूर्वक निर्वाह करें|
-जीवन में तनाव आते हैं और कई बार परिवार की कई अप्रिय स्थितियों के कारण मन अप्रसन्न या विषादमय रहता तो ऐसे समय में अपनी मनस्थिति का उल्लेख करते हुए अवकाश स्वीकृत करवा लें| जिससे ऐसे हालात में सरकारी काम में किसी प्रकार की गलती नहीं हो| इसके बावजूद भी जब भी आपसे जाने-अनजाने कोई गलती या भूल हो जाये तो उसके बारे में सभी कारणों तथा उन परिस्थितियों को दर्शाते हुए, जिनके कारण ऐसा हुआ अपने बॉस को लिखित में अवगत करा दें|
-कभी भी किसी के दबाव या प्रभाव या बहकावे में आकर अपनी गलती को लिखित में स्वीकार नहीं करें|
-अपने कार्य को कभी भी लंबित नहीं रहने दें| अन्यथा केवल ये ही वजह आपको नौकरी से बर्खास्त करने का कारण बन सकती है|
-अधिकाधिक समय अपने कार्यस्थल पर बैठकर काम को निपटाने की आदत डालें| काम नहीं होने पर पुराने मामलों की फाइलों का अध्ययन करें| इससे आपका काम तो समय पर होता ही है| साथ ही साथ काम में पारंगतता भी स्वत: ही आती है|
-ईमानदार लोक सेवकों को भ्रष्ट उच्च अधिकारी या वरिष्ठ साथी समान्यत: सही और कानून सम्मत परामर्श नहीं देते हैं| इसलिए यह बात याद रखनी चाहिये कि जो भी परामर्श या मार्गदर्शन किसी भी लोक सेवक को जब-जब भी जरूरी हो, उसके बारे में मार्गदर्शन देना या सिखाना या बतलाना प्रत्येक सम्बन्धित उच्च अधिकारी या वरिष्ठ साथी का कानूनी दायित्व होता है| जिसे वे टालते हैं| अत: जब भी किसी उच्च अधिकारी या वरिष्ठ साथी से परामर्श चाहिए तो ऐसा परामर्श पत्रावली पर लिखकर प्राप्त करें| ऐसे में वरिष्ठ अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते और कभी भी किसी के अस्पष्ट या समस्या पैदा कर सकने वाले मौखिक आदेशों तथा कानून विरुद्ध आदेशों का पालन नहीं करें| यदि जनहित में मौखिक आदेशों का पालन करना जरूरी हो तो कार्य पूर्ण करते ही तत्काल ऐसे मौखिक आदेशों को फ़ाइल पर लिखकर उनका सम्बन्धित अधिकारी से लिखित में अनुमोदन प्राप्त कर लें| अनुमोदन करने से इनकार करने पर एक स्तर उच्च अधिकारी को लिखित में अवगत करावें|
-अपने से वरिष्ठ या अपने बॉस के कहने से फाईल पर गलत टिप्पणी (नोटिंग) कभी नहीं लिखें| जब तक मांगी न जाये या आपके दायित्वों में शामिल नहीं हो तब तक फाईल पर अपने बॉस को परामर्श नहीं दें|
-अपने विभाग के नियमों की सामान्य नहीं, बल्कि पूर्ण जानकारी प्राप्त करें|
-विभागीय नियम केवल प्रक्रियागत नियम होते हैं, जो कार्यसंचालन के लिये बनाये जाते हैं| जिनमें अनेक ऐसे नियम भी होते हैं, जो असंगत और मनमाने होते हैं| अत: ऐसे नियमों को अन्तिम सत्य कभी नहीं मानें| आप देश के संविधान और अदालती निर्णयों के बारे में भी कुछ जानकारी रखें| जिससे आपको ज्ञात हो सके कि प्रक्रियागत नियम कितने अधिकृत हैं! यह इसलिये भी जरूरी है कि हमारे देश में बहुत सारे कानून संविधान के प्रावधानों के विपरीत होने के कारण असंवैधानिक और विधि-विरुद्ध हैं| अनेक तो ऐसे नियम भी लागू किये जा रहे हैं, जिन्हें न्यायालयों द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जा चुका है| ऐसे कानूनों का विधिक प्रभाव शून्य है|
 श्री अनिल जी मैं समझता हूँ कि आपको अपने सवाल का उत्तर मिल गया होगा| फिर भी अन्य पाठकों से भी अपेक्षा है कि वे भी इस बारे में प्रकाश डालें|
शुभाकांक्षी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

7.7.11

कानून और न्याय व्यवस्था का वैश्वीकरण


मनीराम शर्मा, एडवोकेट

ब्रिटिश भारत में उच्चस्तरीय  सरकारी लोक सेवकों (राजपत्रित-जोकि प्रायः अंग्रेज ही हुआ करते थे )को संरक्षण दिया गया था, ताकि वे ब्रिटिश खजाने को भरने में अंग्रेजों की निर्भय मदद कर सकें, उन्हें किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही का कोई  भय न हो| अपने इस स्वार्थ पूर्ति के लिए उन्होंने दण्ड प्रक्रिया  संहिता,१८९८  में धारा १९७ में प्रावधान किया था कि ऐसे लोक सेवक जिन्हें सरकारी स्वीकृति के बिना पद से नहीं हटाया जा सकता के द्वारा शासकीय हैसियत में किये गए अपराधों के लिए किसी भी न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञान सरकार की स्वीकृति के बिना नहीं लिया जायेगा| यह स्वस्पष्ट है कि साम्राज्यवादी  सरकार द्वारा  यह प्रावधान मात्र अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए बनाया गया था| यहॉं पर यह भी स्मरणीय है कि निचले स्तर के  (जो भारतीय ही होते थे) सरकारी लोक सेवकों को यह संरक्षण प्राप्त नहीं था| उस समय बहुत कम संख्या में राजपत्रित सेवक हुआ करते थे तथा उनके नाम एवं छुटियॉं भी राजपत्र में प्रकाशित हुआ करती थी, किन्तु आज स्थिति भिन्न है|

हमारी संविधान सभा के समक्ष भी यह विषय विचारणार्थ आया जिस पर विचार करने के बाद, संविधान सभा ने मात्र राष्ट्रपति और राज्यपाल को उनके कार्यकाल के दौरान ही अभियोजन से सुरक्षा देना उचित समझा, जबकि लोक सेवकों को  लोक कृत्य के सम्बन्ध में दण्ड प्रक्रिया  संहिता की धारा १९७ का उक्त संरक्षण हमेशा के लिए उपलब्ध है| आज भारतीय गणतंत्र में भी दण्ड प्रक्रिया  संहिता की धारा १९७ तथा अन्य कानूनों में यह  प्रावधान बदस्तूर जारी है, जबकि पाश्चत्य देशों इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि के कानूनों में ऐसे प्रावधान नहीं हैं| अभियोजन स्वीकृति का यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद १४ की सभी को कानून के समक्ष समान मानने की भावना के विपरीत, अनावश्यक तथा लोक सेवकों में अपराध पनपाने की प्रवृति पनपाने वाला है| यही नहीं यह प्रावधान लोक सेवकों के मध्य भी भेदभाव रखता है| निचली श्रेणी के लोक सेवक जिनका जनता से सीधा वास्ता हो सकता है अर्थात् जिनकी नियुक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति की ओर से या उनके द्वारा नहीं की जाती उन्हें यह कानूनी संरक्षण उपलब्ध नहीं है| दूसरी ओर बराबर की श्रेणी (ग्रेड) के अधिकारी जो राजकीय उपक्रमों (जो कि संविधान के अनुसार राज्य की परिभाषा में आते हैं) में कार्यरत हैं, उन्हें यह सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी, जबकि उसी ग्रेड के राज्य सेवा में प्रत्यक्ष तौर पर सेवारत सेवक को यह सुरक्षा उपलब्ध है|

इसी प्रकार की विसंगति का एक उदाहरण तहसीलदार का है | तहसीलदार की नियुक्ति राज्य के राजस्व मंडल द्वारा होने के कारण उसे धारा १९७ का संरक्षण प्राप्त नहीं है, जबकि उसी ग्रेड के सहायक वाणिज्यिक कर अधिकारी व अन्य अधिकारियों को यह संरक्षण उपलब्ध है| इसके अतिरिक्त जब एक ही अपराध में विभिन्न श्रेणी के लोक सेवक संलिप्त हों तो निचली श्रेणी के लोक सेवकों का अभियोजन कर दण्डित करना और मात्र उपरी श्रेणी के सेवकों का अपराधी होते हुए भी उक्त कानूनी संरक्षण के कारण बच निकालना अनुच्छेद  १४ का स्पष्ट और मनमाना उल्लंघन है| विधि के शासन का ऐसा अभिप्राय कभी नहीं रहा है कि एक ही अपराध के अपराधियों के साथ भिन्न भिन्न व्यवहार हो!

सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय शोषित रेलवे कर्मचारी के मामले में कहा है कि असमानता दूर होनी चाहिए और विशेषाधिकार समाप्त होने चाहिए| इसी  प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने विनीत नारायण के मामले में भी कहा कि कानून अभियोजन एवं जांच के लिए अपराधियों को उनके जीवन स्तर के हिसाब से भेदभाव नहीं करता है| पी पी शर्मा के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि अभियोजन स्वीकृति के बिना आरोप पत्र दाखिल करना अवैध नहीं है| मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय घोषणा, जिसपर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं, के अनुच्छेद १ में कहा गया है कि गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से सभी मानव प्राणी  जन्मजात स्वतन्त्र तथा  समान हैं|

एक तरफ देश भ्रष्टाचार की अमरबेल की मजबूत पकड़ में है तो दूसरी ओर अभियोजन स्वीकृति की औपचारिकता के अभाव में बहुत से प्रकरण बकाया पड़े हुए हैं| सीबीआई के पास अभियोजन स्वीकृति की प्रतीक्षा में १२९ व्यक्तियों का अभियोजन बकाया है, जिसमें सबसे पुराना मामला जुलाई २००९ का है| ठीक इसी प्रकार भ्रष्टाचार निराधक ब्यूरो राजस्थान के पास २०० से अधिक लोक सेवकों का अभियोजन, अभियोजन स्वीकृति की प्रतीक्षा में बकाया है| जिसमें सबसे पुराना मामला अप्रैल २००५ का है|
इससे भी अधिक गंभीर तथ्य यह है कि जिन मामलों में स्वीकृति मिल जाती है, या मामले स्वीकृति हेतु विचाराधीन होते हैं, उनको  भी चुनौती देकर न्यायालयों से स्थगन प्राप्त कर विवाद को और लंबा खींचा जाता है| कानून में अभियोजन स्वीकृति के लिए कोई समयावधि अथवा प्रक्रिया निर्धारित नहीं हैं| यह भी स्पष्ट नहीं है कि व्यक्तिगत परिवाद की स्थिति में यह स्वीकृति किस प्रकार और किसके द्वारा मांगी जायेगी| कुलमिलाकर स्थिति भ्रमपूर्ण एवं अपराधियों के अनुकूल है| यद्यपि राजस्थान सरकार के पूर्व में प्रशासनिक आदेश थे कि अभियोजन स्वीकृति का निपटान १५ दिवस में कर दिया जावे| बाद में केंद्रीय सतर्कता आयोग ने २ माह के भीतर अभियोजन स्वीकृति का निपटान करने के आदेश जारी किये हैं, किन्तु इन आदेशों की अनुपालना की वास्तविक  स्थिति  उपरोक्त आंकड़ों से स्वत: स्पष्ट है|

आपराधिक प्रकरणों में प्रसंज्ञान मात्र तभी लिया जाता है, जब प्रथम दृष्टया मामला बनता हो| अतः अनावश्यक परेशानी की आशंका निर्मूल है| इसका दूसरा अभिप्राय यह निकलता है कि न्यायालयों द्वारा प्रसंज्ञान लिये जाने की प्रक्रिया में विश्वास का अभाव होना है तथा प्रसंज्ञान के न्यायिक निर्णय की प्रशासनिक पुनरीक्षा कर एक वर्ग विशेष के अपराधियों के अभियोजन की स्वीकृति रोक कर न्यायिक अभियोजन के प्रयास को विफल करना है| वहीं इसका अभिप्राय यह भी है कि दूसरी ओर देश के आम नागरिक एवं वंचित (निम्न) श्रेणी के लोक सेवकों को उच्च पदस्थ लोक सेवकों के लिये अविश्वसनीय समझी जाने वाली न्यायिक प्रक्रिया द्वारा परेशान किये जाने हेतु खुला छोड़ना है|

एक सक्षम मजिस्ट्रेट को किसी भी मामले का प्रसंज्ञान लेने की कानूनी शक्ति प्राप्त है तथा अभियोजन स्वीकृति के अभाव में प्रसंज्ञान को बाधित करना उचित न्यायिक क्षेत्राधिकार के प्रयोग में जानबूझकर अवरोध उत्पन्न करना है| प्रायः अभियोजन स्वीकृति के प्रावधान को सही ठहराते समय यह तर्क दिया जाता है कि यह प्रावधान लोक सेवकों को अनावश्यक परेशानी से बचाने के लिए उचित और जरूरी है| जबकि निचले स्तर के लगभग ९०% लोक सेवक, जिनका जनता से सीधा वास्ता पड़ता है और उनकी नियुक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति की अधिकृति के बिना की जाती है, उनको यह संरक्षण उपलब्ध नहीं है तथा वे ऐसी सुरक्षा के बिना भी लोक सेवक के रूप में सेवाएं दे रहे हैं| इनका जनता से सीधा संपर्क होने से उनके अभियोजन की संभावनाएं तथा जोखिम भी अधिक है| इसके विपरीत विकसित माने जाने वाले  देश इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों के सभी स्तर के लोक सेवक धारा १९७ जैसी किसी सुरक्षा के बिना जनता को अपनी सेवाएं दे रहे हैं तो हमारे देश में इस ऊपरी लोक सेवकों के वर्ग विशेष को ऐसी कानूनी सुरक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता है| फिर भी यदि अनुचित अभियोजन या परेशानी का अंदेशा हो व प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता हो तो उपरी स्तर के सक्षम लोक सेवक दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ के अंतर्गत अन्य नागरिकों की तरह हाई कोर्ट से राहत प्राप्त कर सकते हैं|

दण्ड प्रक्रिया संहिता एक सारभूत या  मौलिक कानून न होकर प्रक्रियागत कानून है, जिसका उद्देश्य सारभूत कानून को लागू करने में सहायता करना है, जबकि अभियोजन स्वीकृति सम्बन्धित प्रावधान तो कानून लागू करने में बाधक साबित हो रहा है| इसलिए प्रक्रियागत कानूनों को बाध्यकारी के बजाय निर्देशात्मक ही बताया गया है| स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कैलाश बनाम ननकू के मामले में कहा है कि यद्यपि व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश ८ नियम १ आज्ञापक प्रवृति का है, किन्तु प्रक्रियागत कानून का भाग होने से यह निर्देशात्मक ही है| इस सिद्धांत को भी यदि धारा १९७ के मामले में समान रूप से लागू किया जाय तो भी अभियोजन स्वीकृति मात्र एक रिक्त औपचारिकता ही हो सकती है, अपरिहार्य नहीं|

उक्त तथ्यों को ध्यान रखते हुए राज्य सभा की ३७ वीं रिपोर्ट दिनांक ०९.०३.१० में अनुशंसा की गयी  है कि अभियोजन स्वीकृति पर १५ दिवस के भीतर निर्णय कर लिया जाये अन्यथा उसे स्वतः ही  स्वीकृति मान लिया जावे| पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,१९८६ की धारा १९ (१)(क) में प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनयम के अंतर्गत अपराध का सरकार द्वारा शिकायत के बिना प्रसंज्ञान नहीं लेगा, किन्तु उपधारा (ख) में यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा इस आशय का  ६०  दिन का नोटिस देने के पश्चात ऐसी कार्यवाही संस्थित की जा सकेगी| अधिक सुरक्षा के लिए ऐसा ही प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता में भी किया जा सकता है|

अतः अभियोजन पूर्व स्वीकृति का धारा १९७ का प्रावधान कानूनी रूप से किसी भी प्रकार से अपेक्षित, तर्कसंगत, न्यायोचित एवं भारतीय गणराज्य में  संवैधानिक नहीं है और इसे तत्काल हटाये जाने की आवश्यकता का संसद को मूल्यांकन करना चाहिए है|