यह तभी सम्भव है, जब मंत्रीजी रेलवे संरक्षा एवं रेलवे संचालन से जुडे प्रावधानों को अंग्रेजी में बनाकर, अंग्रेजी नहीं जानने वालों पर जबरन थोपने वाले असली गुनेहगारों को भी सजा देनी की हिम्मत जुटा पायें, अन्यथा होगा ये कि आप रेल दुर्घटना को बचाने के पुरस्कार में मृतकों के परिजनों को रेलवे में नौकरी देंगी और आगे चलकर अंग्रेजी कानूनों का उल्लंघन करने पर, ऐसी अनुकम्पा के आधार पर भर्ती हुए रेलकर्मियों को कोई रेल अधिकारी नौकरी से निकाल देगा। आजाद भारत में इससे बढकर शर्मनाक कुछ भी नहीं हो सकता। वाह क्या नियम हैं?
रेल दुर्घटना होने के बाद राजनैतिक पार्टियों की ओर से रेल मन्त्री ममता बनर्जी पर आरोप है कि उनको पं. बंगाल के मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठने की इतनी जल्दी है कि उन्हें रेल मन्त्रालय संभालने की फुर्सत ही नहीं है। ममता जी पूर्व में भी अटल जी के नेतृत्व वाली सरकार में रेल मंत्री रह चुकी हैं। इसलिए, यह तो नहीं माना जा सकता कि वे नयी हैं और उनको रेलवे दुर्घटनाएं क्यों होती हैं, इस बारे में जानकारी नहीं होगी। सधी बात यह है कि रेल मंत्री काले अंग्रेज अफसरों के चंगुल से बाहर निकल कर देखें, तो पता चलेगा कि रेलवे के हालात कितने खराब हैं और इन खराब हालातों के लिये कौन जिम्मेदार हैं? ममता जी! रेलवे मंत्रालय में बेशक आपने एक ईमानदार रेल मंत्री की छवि बनायी है, परन्तु आपके आसपास के वातानुकूलित कक्षों में विराजमान काले अंग्रेजों ने भारतीय रेल की कैसी दुर्दशा कर रखी है, जरा इस पर भी तो गौर कीजिये। आपको पता करना चाहिये कि रेलवे की दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी निर्धारित करने वाले उध रेल अधिकारी क्या कभी, किसी भी जांच में दुर्घटनाओं के लिये जिम्मेदार नहीं ठहराये जाते? आप पायेंगी कि भारतीय रेलवे के इतिहास में किसी अपवाद को छोड दिया जाये तो दुर्घटनाओं के सम्बन्ध में रेलवे के सारे के सारे अफसर दूध के धुले हैं। वे कभी भी ऐसा कुछ नहीं करते कि उनकी वजह से रेल दुर्घटना होती हों।
रेल दुर्घटनाओं के लिये तो हर बार निचले स्तर के छोटे कर्मचारियों ही जिम्मेदार ठहराये जाते रहे हैं। इनमें भी प्वाइंट्समैन, कांटेवाला, कैबिन मैन, स्टेशन मास्टर, गार्ड, चालक, सह चालक आदि कम पढे लिखे और कम वेतन पाने वाले, किन्तु रात-दिन रेलवे की सेवा करने वाले लोग शामिल होते हैं। बेशक, इनमें से अनेक ग्रेजुएट भी होते हैं, लेकिन ग्रेजुएट होकर भी निचले स्तर पर ये लोग इसलिये नौकरी कर रहे होते हैं, क्योंकि उन्होंने किसी सरकारी स्कू ल में हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त की हुई होती है और ग्रामीण परिवेश तथा गरीबी के चलते वे अंग्रेजी सीखने से वंचित रह जाते हैं, जिसके चलते संघ लोक सेवा आयोग में अनिवार्य अंग्रेजी विषय को उत्तीर्ण करना इनके लिये असम्भव होता है। ऐसे कर्मचारियों को रेलवे में, रेलवे संचालन से जुडे सारे के सारे नियम-कानून और प्रावधान केवल अंग्रेजी में पढ एवं समझकर लागू करने को बाध्य किया जा रहा है।
जो लोग अंग्रेजी को ठीक से पढ नहीं सकते, उनके लिये यह सब असम्भव होता है, जिसके चलते अंग्रेजी में लिखे रेल परिचालन के प्रावधानों-नियमों का उल्लंघन होना स्वाभाविक है। जिसका दुखद दुष्परिणाम रेल दुर्घटना होता है।
हर दुर्घटना की हर बार उध स्तरीय जांच होती है। जांच रिपोर्ट में दुर्घटना के कारणों एवं भविष्य में उनके निवारण के अनेक नये-नये तरीके सुझाये जाते हैं, परन्तु ये सारी की सारी रिपोर्ट केवल अंग्रेजी में ही बनाई जाती हैं, जिनके हिन्दी अनुवाद तक की आवश्यकता नहीं समझी जाती है, जबकि सुझाए जाने वाले सारे नियम-कानूनों और उपायों को निचले स्तर पर ही अंग्रेजी नहीं जानने वाले रेलकर्मियों को लागू करना होता है। ऐसे में इन जांच रिपोटोर्ं और रेल संरक्षा से जुडे नये-नये उपायों का तब तक कोई औचित्य नहीं है, जब तक कि रेल संचालन से जुडा हर एक नियम उस भाषा में नहीं बने, जिस भाषा को निचले स्तर का रेलकर्मी ठीक से पढने और समझने में सक्षम हो। बेशक वह भाषा गुजराती, मराठी, पंजाबी, तेलगू, कन्नड, हिन्दी या अन्य कोई सी भी क्षेत्रीय भाषा क्यों न हो। देश के लोगों की जानमाल की सुरक्षा से बढकर कुछ भी नहीं है।
लेकिन यह तभी सम्भव है, जब मंत्रीजी रेलवे संरक्षा एवं रेलवे संचालन से जुडे प्रावधानों को अंग्रेजी में बनाकर, अंग्रेजी नहीं जानने वालों पर जबरन थोपने वाले असली गुनेहगारों को भी सजा देनी की हिम्मत जुटा पायें, अन्यथा होगा ये कि आप रेल दुर्घटना को बचाने के पुरस्कार में मृतकों के परिजनों को रेलवे में नौकरी देंगी और आगे चलकर अंग्रेजी कानूनों का उल्लंघन करने पर, ऐसी अनुकम्पा के आधार पर भर्ती हुए रेलकर्मियों को कोई रेल अधिकारी नौकरी से निकाल देगा। आजाद भारत में इससे बढकर शर्मनाक कुछ भी नहीं हो सकता। वाह क्या नियम हैं?--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', Monday, July 19, 2010
भारत में सभी कानूनी प्रावधानों का यदि हिन्दी अनुवाद उपलब्ध भी हो ...फिर भी केवल अंग्रेजी पाठ ही मान्य समझा जाता है. इस से बड़ी विडम्बना क्या होगी कि हमारे मंत्रियों को चाहे हिन्दी का ज्ञान हो या न हो, वे संसद में अंग्रेजी ही बोलते दिखाई देते हैं. राजभाषा होने के बावजूद भी राजकाज हिन्दी में नहीं हो पा रहा है. सरकार है कहाँ?
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