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6.11.10

भ्रष्टाचारियों में कैसा भेद?


Friday, January 29, 2010


भ्रष्टाचारियों में कैसा भेद?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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भ्रष्ट व्यक्ति चाहे किसी भी पद पर बिराजमान हो, वह किसी भी प्रकार के सम्मान का हकदार नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को कानून के समक्ष एक समान समझा ही जाना चाहिये। अन्यथा समानता की गारण्टी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 14 के होने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। इसलिये देश को और अपनी साख बचाये रखने के लिये संसद को कानून में इस प्रकार की सख्त एवं स्पष्ट व्यवस्था करनी चाहिये, जिससे कि हर एक भ्रष्टाचारी जेल की सलाखों के पीछे जा सके बेशक वह कितने ही बडे और सम्मानिक पद पर क्यों न विराजमान हो!
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पिछले महिनों में न्यायपालिका को लेकर अनेक तरह के समाचार और खबर प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से जनता के समक्ष चर्चा का विषय बने हैं। जिसके चलते यह बहस शुरु हो गयी है कि न्यायपालिका पर किसी प्रकार के अंकुश की जरूरत है या नहीं और यदि है तो किसका होना चाहिये। हमारे देश में संसद को सर्वोच्च माना गया है, लेकिन जब से देश की राजनीति में भ्रष्टाचारियों एवं अपराधियों का गठजोड बना है। हर क्षेत्र में निकम्मे, निष्क्रिय, भ्रष्ट और अपराधियों का प्रवेश आसान सा हो गया है। जिसके परिणामस्वरूप संसद में भी ऐसे अपराधी चुनकर पहुंचने लगे हैं, जिनके दामन पर हत्या, बलात्कार, कालाबाजारी, डकैती, लूट, जालसाजी, रिश्वतखोरी जैसे घिनौने और अमानवीय अपराधों के काले धब्बे लगे हुए हैं।

पहले समाज में लम्बे समय तक काम करने वाले एवं समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत व्यक्ति ही इस क्षेत्र में कदम रखने की सोचता था, लेकिन अब तो जीवनभर काली कमाई करके धन एकत्रित करने वाले और जन सेवक होकर के भी जीवनभर जनता का खून पीने वाले अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद पेशे की तरह राजनीति को अपने लिये सबसे उपयुक्त मानने लगे हैं। ऐसे लोग संसद और विधान मण्डलों में पहुंच रहे हैं, जिनके पास इतना नैतिक तथा चारित्रिक बल नहीं है कि वे संसद और विधानमण्डलों में बैठकर न्यायपालिका पर नियन्त्रण करने की बात सोच भी सकें। इसी का परिणाम है कि अब न्यायपालिका भी अपने आपको देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था समझने का संकेत देने लगी है।

संविधान में संसद द्वारा किये जाने वाले संशोधनों के विरुद्ध दायर याचिकाओं को सुनवाई के लिये स्वीकार करने लगी है। जिसका स्पष्ट अर्थ होता है कि संसद द्वारा संविधान में किये गये संशोधनों में कमी निकालने का न्यायपालिका अपने पास संवैधानिक अधिकार समझती है। जबकि सच्चाई यह है कि संविधान की मूल भावना ऐसी नहीं थी कि सारे देश के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर यदि संविधान में कोई संशोधन किया जाता है तो उसे अन्तिम माना जायेगा और उसे किसी भी मंच पर या न्यायपालिका के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकेगी। परन्तु जैसे-जैसे विधायिका का नैतिक पतन होता गया, उसकी संवैधानिका शक्ति का भी क्षरण होना प्रारम्भ हो गया।

अब इसी प्रकार से न्यायपालिका का भी क्षरण हो रहा है। न्यायपालिका में पनप रहे भ्रष्टाचार से सभी वाकिफ हैं। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश सार्वजनकि रूप से स्वीकार कर चुके हैं कि 20 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। यह तो स्वीकार किया गया तथ्य है, जबकि जमीनी सच्चाई इससे कहीं अधिक है। जब एक बार यह मान लिया गया है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है तो भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये उन्हीं वैधानिक उपचारों को न्यायपालिका के विरुद्ध भी अपनाने में क्या आपत्ति हो सकती है, जो आम व्यक्ति या आम लोक सेवक के विरुद्ध अपनाये जाते हैं।

भ्रष्ट व्यक्ति चाहे किसी भी पद पर बिराजमान हो, वह किसी भी प्रकार के सम्मान का हकदार नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को कानून के समक्ष एक समान समझा ही जाना चाहिये। अन्यथा समानता की गारण्टी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 14 के होने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। इसलिये देश को और अपनी साख बचाये रखने के लिये संसद को कानून में इस प्रकार की सख्त एवं स्पष्ट व्यवस्था करनी चाहिये, जिससे कि हर एक भ्रष्टाचारी जेल की सलाखों के पीछे जा सके बेशक वह कितने ही बडे और सम्मानिक पद पर क्यों न विराजमान हो!

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