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6.11.10

जयपुर बम-ब्लॉस्ट मामलों की सुनवाई में विलम्ब का सच!


Monday, May 3, 2010


जयपुर बम-ब्लॉस्ट मामलों की सुनवाई में विलम्ब का सच!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

ताज होटल पर हुए हमले की सुनवाई पूरी होकर, एक मात्र जिन्दा पकडे गये आतंकी अजमल कसाब को दोषी ठहराया जा चुका है, जबकि दो वर्ष से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी जयपुर बम ब्लॉस्ट में मारे गये लोगों के परिजनों को न्याय का अभी भी इन्तजार है। अभी भी यह कहना सम्भव नहीं है कि इस मामले में दोषियों को कब तक सजा सुनाई जायेगी। लेकिन जयपुर के लोग इस बात को लेकर हाय तौबा कर रहे हैं, जबकि बेकार में हो हल्ला मचाने से कुछ नहीं होने वाला। क्योंकि जयपुर में मरने वाले आम लोग थे, जिनके परिजनों के प्रति आम लोगों को तो सहानुभूति हो सकती है, लेकिन प्रशासन, कानून एवं न्याय-व्यवस्था के नीति-नियन्ताओं को मरने वालों या उनके परिजनों से कोई सहानुभूति नहीं है, बल्कि यह कहना अधिक उचित होता कि ये नीति नियन्ता आम व्यक्ति के प्रति इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि इनसे किसी प्रकार की सहानुभूति या शीघ्र न्याय की अपेक्षा कारना, अपने आपको धोखा देने के सिवा और कुछ भी नहीं है।
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मुम्बई से कसाब के मामले में निर्णय सुनाये जाने के बाद जयुपर की भोली-भाली या कहो जानबूझकर मीडिया की नजरों से चीजों की समझने की आदी जनता जयपुर बम ब्लॉस्ट के मामले को भी याद कर रही है कि दो वर्ष बीत जाने के बाद भी जयपुर के दोषियों के खिलाफ अभी भी मामला क्यों लम्बित है। एक स्थानीय दैनिक ने भी इस मुम्बई मामले में निर्णय आने पर समाचार प्रकाशित किया है कि-हमें इंसाफ कब!- अपने आपको राष्ट्रीय लिखने वाले इस दैनिक ने इस मामले में अनेक बातों को विलम्ब के लिये जिम्मेदार बतलाया, जिसमें सबसे बडी वजह तो यही बतलायी गयी है कि विशेष अदालत के गठन में ही 20 माह का समय लग गया और विशेष अदालत का गठन होने के बाद भी लम्बी-लम्बी तारीखें दी जा रही हैं। अनेक बडे लोगों के विचार भी अपने समाचार में शामिल किये हैं। सबने अपने अपने तरीके से विलम्ब का कारण बतलाया है। लेकिन असल बात को किसी ने कहने की हिम्मत नहीं जुटायी।


वास्तविकता यह है कि जयपुर के बम धमाकों में मरने वाले सडक पर चलने वाले आम भारतीय थे, जिनके जीने मरने से इस देश को संचालित करने वाले इण्डियंस को कोई फर्क नहीं पडता है। यदि जयपुर बम ब्लॉस्ट में कोई सांसद, विधायक, आईएएस, आईपीएस, क्रिकेटर, एक्टर, पूंजीपति या उद्योगपति मरा होता तो विशेष अदालत के गठन में 20 दिन का भी समय नहीं लगता और मामले की दिन प्रतिदिन सुनवाई होकर कभी का निर्णय हो गया होता।

अतः आम व्यक्ति को इस बात को समझ लेना चाहिये कि बेशक इस देश के संविधान में लिखा है कि कानून के समक्ष सभी को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का एक समान संरक्षण भी प्रदान किया जायेगा। फिर भी आम व्यक्ति आज भी द्वितीय, तृतीय या चौथे दर्जे का ही नहीं, बल्कि अन्तिम और बदतर दर्जे का जीवन जीने का विवश है। संविधान द्वारा प्रदत्त उक्त मूल अधिकार का सकारात्मक विवेचन करते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने अनेक बार दोहराया है कि संविधान में मूल अधिकार के रूप में प्राप्त समानता के अधिकार का तात्पर्य यह नहीं है कि सरकार द्वारा आँख बन्द करके सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जायेगा और सभी को कानून का एक समान संरक्षण प्राप्त होगा, बल्कि समाज के विभिन्न प्रकार के हालातों और परिस्थितियों में जीवन जीने वाले लोगों को उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक और आर्थिक हालातों के आधार पर वर्गीकृत करके मिलते-जुलते लोगों को समूहों या वर्गों के रूप में परिभाषित या अधिसूचित कर दिया जावे और तब प्रत्येक वर्ग या समूह के लोगों के साथ एक समान व्यवहार किया जावे।

जैसा कि ऊपर कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मूल अधिकार का सकारात्मक विवेचन करते हुए उक्त वर्गीकरण किया गया है। जिसके पीछे सुप्रीम कोर्ट की यह सकारात्मक सोच रही है कि एक जैसे समूह में नागरिकों को वर्गीकृत कर देने से उनमें प्रतियोगिता का स्तर भी एक जैसा होगा और उनके लिये आवंटित बजट तथा सुविधाओं का विभाजन भी एक समान हो सकेगा। इसके पीछे न्यायिक सोच और पवित्र लक्ष्य यह था कि इस देश के प्रत्येक व्यक्ति को प्रगति करने का समान अवसर प्राप्त हो और सभी लोगों का समान रूप से उत्थान हो सके और अन्ततः देश में समाजवादी तथा लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस पवित्र मकसद को पूरा नहीं होने दिया, उन प्रशासनिक अफसरों ने, जिनके लिये संविधान का जीरो (शून्य) ज्ञान होने पर भी उन्हें संघ लोक सेवा आयोग से महामानव का दर्जा प्रदान करके आईएएस का तमगा थमा दिया जाता है।

यह बात सहज ही समझी जा सकती है कि जो व्यक्ति मैकेनिकल/इलेक्ट्रीकल/कम्प्यूटर/विज्ञान आदि में स्नातक डिग्री करके आईएएस या आईपीएस बन जाता है और बिना संविधान या कानून को पढे संविधान की भावना के अनुसार कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिये अधिकृत कर दिया जाता है, उससे कैसे न्याय और निष्पक्ष व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है? दुष्परिणामस्वरूप यह जीता जागता नमूना है कि सुप्रीम कोर्ट के उक्त वर्गीकरण के सिद्धान्त का प्रशासनिक अफसरों ने ऐसा नकारात्मक विवेचन कर लिया है कि यदि कोई घटना किसी सांसद, विधायक, आईएएस, आईपीएस, क्रिकेटर, एक्टर, पूंजीपति या उद्योगपति या उसके परिजनों के साथ होती है या इस श्रेणी के लोगों के ठहरने और आवागमन के मार्ग में किसी प्रकार के खतरे की आशंका भी हो तो न्याय प्रक्रिया एवं कानून को द्रुत गति से काम करना चाहिये और दोषियों को तत्काल सजा सुनाई जानी चाहिये। जिससे कि भविष्य में किसी भी वीवीआईपी को या उनके परिजनों को किसी प्रकार के खतरे की आशंका नहीं रहे, जबकि आम व्यक्तियों के मामले में आम रफ्तार ही ठीक समझी जाती है। आम व्यक्ति के मरने-जीने से वैसे भी इन नीति-नियन्ताओं की सेहत पर फर्क क्या पडता है?

परोक्ष रूप से न्यायपालिका ने भी इस असंवैधानिक एवं मनामनी व्यवस्था को मान्यता दे रखी है। अन्यथा क्या कारण है कि जेल में बन्द एक आम व्यक्ति को निर्दोष घोषित करने में न्यायपालिका को 14 से 20 वर्ष लग जाते हैं। जबकि सांसद, विधायक, आईएएस, आईपीएस, क्रिकेटर, एक्टर, पूंजीपति या उद्योगपतियों के मामले तत्काल कुछ ही महिनों में, बल्कि कुछ ही दिनों में सुनकर निर्णीत कर दिये जाते हैं। इनकी ओर से दायर याचिकाएँ तत्काल सुनवाई के लिये सिलस्टेट हो जाती हैं, जबकि गरीबों के हजारों-लाखों बच्चों के शैक्षिक जीवन दाव पर लगे रहने के बाद भी याचिका वर्षों तक सुनवाई हेतु लिस्टेड नहीं होती हैं। यदि गलती से या जोड-तोड के जरिये लिस्टेड हो भी जायें तो वर्षों तक नोटिस सर्व नहीं होते हैं!

आम व्यक्ति को और विशेषकर सडक पर चलने वाले जयपुर के वासिन्दों को समझ लेना चाहिये कि यहाँ पर दोषियों को सजा दिलाने में कोई विलम्ब नहीं हो रहा है। यहाँ के मृतक आम व्यक्ति थे और आम व्यक्ति न्याय या संरक्षण प्राप्ति हेतु अन्तिम पायदान पर खडा है। यही वजह है कि विशेष अदालत के गठन में बीस महिने लगे और अभी भी विशेष अदालत को सुनवाई की कोई जल्दी नहीं है। भगवान से प्रार्थना करो कि किसी वीआईपी के साथ जयपुर में कोई हादसा नहीं हो अन्यथा विशेष अदालत में पहले उसके मामले की सुनवाई होगी और जयपुर बम-ब्लॉस्ट मामला और विलम्बित हो जायेगा।

जयपुर के लोगों को याद दिलाना जरूरी है कि जब-जब जयपुर में किसी पूँजीपति या जौहरी के किसी परिजन का अपहरण किया गया, सारा का सारा मीडिया, पुलिस महकमा और सरकारी अमला उसे ढूँढकर छुडाने में जुट गया, जबकि आम लोगों की कितनी ही इकलौती सन्तानें वर्षों से लापता हैं। पुलिस की तो छोडो राष्ट्रीय या प्रादेशिक कहलाने वाले प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आम व्यक्ति की इन सन्तानों से कोई सरोकार नहीं है। हाँ अपनी खबरें बेचने के लिये मीडिया अवश्य यदा-कदा घडियाली आँसू बहाता रहता है। इनको देखकर आम लोगों को भावविह्वल होने की मूर्खता नहीं करनी चाहिये।

इन हालातों में बेकार में हो हल्ला मचाने से कुछ नहीं होने वाला। जयपुर में मरने वाले आम लोग थे, जिनके परिजनों के प्रति आम लोगों को तो सहानुभूति हो सकती है, लेकिन प्रशासन, कानून एवं न्याय-व्यवस्था के नीति-नियन्ताओं को मरने वालों या उनके परिजनों से कोई सहानुभूति नहीं है, बल्कि यह कहना अधिक उचित होता कि ये नीति नियन्ता आम व्यक्ति के प्रति इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि इनसे किसी प्रकार की सहानुभूति या शीघ्र न्याय की अपेक्षा कारना, अपने आपको धोखा देने के सिवा और कुछ भी नहीं है।

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