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PRESSPALIKA NEWS CHANNEL-प्रेसपालिका न्यूज चैनल

7.9.11

सुप्रीम कोर्ट में दो करोड़ 39 लाख मेडीकल खर्च का रिकॉर्ड ही नहीं?

सूचना अधिकार कानून के तहत हुआ खुलासा

सुप्रीम कोर्ट में दो करोड़ 39 लाख 

मेडीकल खर्च का रिकॉर्ड ही नहीं?
सुप्रीम कोर्ट के मामले में सीआईसी की बोलती बन्द क्यों हो जाती है?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

जनता की गा़ढ़ी कमाई से टैक्स के जरिये संग्रहित सरकारी खजाने से यदि एक रुपया भी किसी मद पर खर्च होता है तो उसका बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाना कठोर कानूनी व्यवस्था है| किसी को भी, किसी भी मद पर किसी भी प्रकार का नगद या चैक से भुगतान किया जाता है तो उसका स्पष्ट लेखा-जोखा रखा जाता है| जिसके लिये हर सरकारी दफ्तर में लेखा अधिकारी नियुक्त हैं, जो इस काम के बदले सरकारी खाजने से वेतन पाते हैं|
ऐसे में भारत के संविधान के तहत गठित कोई भी सरकारी निकाय चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो यदि ये कहे कि वह अपने खर्चों का अलग-अलग और मदबार हिसाब नहीं रखता है, वह इस कारण सूचना अधिकार के तहत खर्चे का नामजद विवरण नहीं दे सकता और मुख्य सूचना आयोग इस तर्क को सुनने के बाद भी चुप रहें तथा केवल इतना सा कहकर बात को समाप्त कर दे कि आगे से हिसाब-किताब रखा जाये तो इसे क्या कहा जायेगा? सूचना आयोग का दब्बू रुख या घबराहट? क्योंकि मामला देश की सबसे बड़ी अदालत से सम्बन्धित है| 

जबकि होना तो ये चाहिये कि जितनी बड़ी सरकारी संस्था उतनी अधिक जिम्मेदारी और परदर्शिता सुनिश्‍चित की जावे, लेकिन यहॉं तो पूरी तरह से उल्टी बात हो रही है| सुप्रीम कोर्ट के केन्द्रीय सूचना अधिकारी बड़ी मासूमियत से सूचना आयोग को जवाब दे रहे हैं कि कुल दो करोड़ 39 लाख रुपये मेडीकल बिलों के भुगतान पर खर्च हुए हैं, लेकिन सूचना अधिकार कानून के तहत यह नहीं बतलाया जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट के कर्मचारियों और जजों या पूर्व जजों के उपचार पर सरकारी खजाने से अलग-अलग कितना-कितना धन खर्च हुआ|

सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक कार्यालय ने मुख्य सूचना आयुक्त को बतलाया है कि जजों के व्यक्तिगत मेडिकल खर्च का रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है| मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्र ने सुप्रीम कोर्ट को जजों को मेडिकल खर्च की भरपाई के लिए व्यक्तिगत तौर पर दी गई राशि का ब्योरा देने को कहा था| केंद्रीय सूचना आयोग ने भविष्य में जजों के व्यक्तिगत मेडिकल बिलों का हिसाब रखने को कहा है| सुप्रीम कोर्ट ने ताजा जानकारी में जजों, रिटायर्ड जजों और सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों के मेडिकल खर्च की कुल रकम की जानकारी जरूर आयोग को दी है जो 2.39 करोड़ रुपये बताई गई है| सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी स्मिता वत्स शर्मा ने कहा कि जजों के व्यक्तिगत मेडिकल खर्च के रिकॉर्ड के रखरखाव की जरूरत नहीं है और इसका रिकॉर्ड नहीं रखा जाता|

यहॉं पर सबसे आश्‍चर्यजनक बात तो ये है कि दो करोड़ 39 लाख रुपये मेडीकलों बिलों पर भुगतान किये गये हैं, ये बात तो सुप्रीम कोर्ट की ओर से स्वीकार की गयी है, लेकिन भुगतान किस-किस को किये गये इस बात का सुप्रीम कोर्ट के कार्यालय को पता नहीं है, क्योंकि इसका रिकार्ड नहीं रखा जाता है! क्या यह बात किसी आम व्यक्ति के भी गले उतर सकती है कि दो करोड़ 39 लाख रुपये बिना हिसाब-किताब के यों ही भुगतान कर दिये होंगे?

निश्‍चय ही जिस-जिस लोक सेवक के बिल भुगतान हेतु प्राप्त हुए होंगे, उस-उस को ही तो भुगतान किया गया होगा| हो सकता है कि एक लोक सेवक के असाल के दौरान एक से अधिक मेडीकल बिल पास किये गये हों और उनका अलग-अलग जोड़ नहीं किया गया हो, लेकिन यह कोई बहुत बड़ा और दुरूह कार्य नहीं है, जिसे किया नहीं जा सके! या फिर सुप्रीम कोर्ट का दफ्तर जनता को नहीं बतलाना चाहता कि वहॉं पर किस-किस पर कितना-कितना खर्च हुआ है| वैस इस बात का खुलासा करने में किसी प्रकार की परेशानी होने का सवाल कहॉं उठता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैडीकल बिलों के अलग-अलग भुगतान करने से कोई ऐसी बात उजागर होने का अन्देशा हो, जिसे कोर्ट के कार्यालय द्वारा जनता को बताना उचित नहीं समझा जा रहा है|

मैं ऐसे अनेक मामलों को जानता हूँ जिनमें 2-5 रुपये के हिसाब-किताब में भूल-चूक हो जाने या साफ-साफ मदवार अलग-अलग हिसाब-किताब नहीं रखने को सतर्कता विभाग या ऐसे कर्मचारी के प्रभारी द्वारा बदनीयत से की गयी आर्थिक गड़बड़ी या ऐसे लोक सेवक की कार्य के प्रति लापरवाही मानते हुए न मात्र ऐसे लोके सेवकों के वेतन से उसकी भरपाई करवाई गयी, बल्कि रिकार्ड में भूल-चूक को गम्भीर हेराफेरी मानते हुए, इस प्रकार के मामले के आरोपी को पद से अवनति या उसकी वेतनवृद्धियों को रोके जाने के दण्ड दिये गये हैं| ऐसे में भारत के सबसे बड़े न्यायालय के कार्यालय में इस बात का लेखा नहीं होना कि दो करोड़ 39 लाख रुपये के मेडीकल बिलों का भुगतान किस-किस को कितना-कितना किया गया अनेक प्रकार के व्यवस्थागत सवालों तथा सन्देहों को जन्म देता है|

केवल इतना ही नहीं, बल्कि इसके साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी के इस बचकाने जवाब को मानकर आगे से हिसाब-किताब रखने की साधारण सी समझाइश देकर सूचना आयोग द्वारा मामले को समाप्त कर देना कौनसा न्याय है? यदि यही बात केन्द्र सरकार के किसी विभाग या कार्यालय से सम्बन्धित होती तो भी क्या सूचना आयोग ऐसा ही निर्णय देता?

निश्‍चय ही यह एक गम्भीर और ऐसा मामला है, जिस पर चुप नहीं रहा जा सकता! जब संविधान कहता है कि कानून के समक्ष सभी को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का एक समान संरक्षण प्राप्त होगा तो फिर ये विभेद क्यों? क्या इसलिये कि सुप्रीम कोर्ट के सामने सूचना आयोग की बोलती बन्द हो जाती है?

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