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PRESSPALIKA NEWS CHANNEL-प्रेसपालिका न्यूज चैनल

7.7.11

कानून और न्याय व्यवस्था का वैश्वीकरण


मनीराम शर्मा, एडवोकेट

ब्रिटिश भारत में उच्चस्तरीय  सरकारी लोक सेवकों (राजपत्रित-जोकि प्रायः अंग्रेज ही हुआ करते थे )को संरक्षण दिया गया था, ताकि वे ब्रिटिश खजाने को भरने में अंग्रेजों की निर्भय मदद कर सकें, उन्हें किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही का कोई  भय न हो| अपने इस स्वार्थ पूर्ति के लिए उन्होंने दण्ड प्रक्रिया  संहिता,१८९८  में धारा १९७ में प्रावधान किया था कि ऐसे लोक सेवक जिन्हें सरकारी स्वीकृति के बिना पद से नहीं हटाया जा सकता के द्वारा शासकीय हैसियत में किये गए अपराधों के लिए किसी भी न्यायालय द्वारा प्रसंज्ञान सरकार की स्वीकृति के बिना नहीं लिया जायेगा| यह स्वस्पष्ट है कि साम्राज्यवादी  सरकार द्वारा  यह प्रावधान मात्र अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए बनाया गया था| यहॉं पर यह भी स्मरणीय है कि निचले स्तर के  (जो भारतीय ही होते थे) सरकारी लोक सेवकों को यह संरक्षण प्राप्त नहीं था| उस समय बहुत कम संख्या में राजपत्रित सेवक हुआ करते थे तथा उनके नाम एवं छुटियॉं भी राजपत्र में प्रकाशित हुआ करती थी, किन्तु आज स्थिति भिन्न है|

हमारी संविधान सभा के समक्ष भी यह विषय विचारणार्थ आया जिस पर विचार करने के बाद, संविधान सभा ने मात्र राष्ट्रपति और राज्यपाल को उनके कार्यकाल के दौरान ही अभियोजन से सुरक्षा देना उचित समझा, जबकि लोक सेवकों को  लोक कृत्य के सम्बन्ध में दण्ड प्रक्रिया  संहिता की धारा १९७ का उक्त संरक्षण हमेशा के लिए उपलब्ध है| आज भारतीय गणतंत्र में भी दण्ड प्रक्रिया  संहिता की धारा १९७ तथा अन्य कानूनों में यह  प्रावधान बदस्तूर जारी है, जबकि पाश्चत्य देशों इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि के कानूनों में ऐसे प्रावधान नहीं हैं| अभियोजन स्वीकृति का यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद १४ की सभी को कानून के समक्ष समान मानने की भावना के विपरीत, अनावश्यक तथा लोक सेवकों में अपराध पनपाने की प्रवृति पनपाने वाला है| यही नहीं यह प्रावधान लोक सेवकों के मध्य भी भेदभाव रखता है| निचली श्रेणी के लोक सेवक जिनका जनता से सीधा वास्ता हो सकता है अर्थात् जिनकी नियुक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति की ओर से या उनके द्वारा नहीं की जाती उन्हें यह कानूनी संरक्षण उपलब्ध नहीं है| दूसरी ओर बराबर की श्रेणी (ग्रेड) के अधिकारी जो राजकीय उपक्रमों (जो कि संविधान के अनुसार राज्य की परिभाषा में आते हैं) में कार्यरत हैं, उन्हें यह सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी, जबकि उसी ग्रेड के राज्य सेवा में प्रत्यक्ष तौर पर सेवारत सेवक को यह सुरक्षा उपलब्ध है|

इसी प्रकार की विसंगति का एक उदाहरण तहसीलदार का है | तहसीलदार की नियुक्ति राज्य के राजस्व मंडल द्वारा होने के कारण उसे धारा १९७ का संरक्षण प्राप्त नहीं है, जबकि उसी ग्रेड के सहायक वाणिज्यिक कर अधिकारी व अन्य अधिकारियों को यह संरक्षण उपलब्ध है| इसके अतिरिक्त जब एक ही अपराध में विभिन्न श्रेणी के लोक सेवक संलिप्त हों तो निचली श्रेणी के लोक सेवकों का अभियोजन कर दण्डित करना और मात्र उपरी श्रेणी के सेवकों का अपराधी होते हुए भी उक्त कानूनी संरक्षण के कारण बच निकालना अनुच्छेद  १४ का स्पष्ट और मनमाना उल्लंघन है| विधि के शासन का ऐसा अभिप्राय कभी नहीं रहा है कि एक ही अपराध के अपराधियों के साथ भिन्न भिन्न व्यवहार हो!

सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय शोषित रेलवे कर्मचारी के मामले में कहा है कि असमानता दूर होनी चाहिए और विशेषाधिकार समाप्त होने चाहिए| इसी  प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने विनीत नारायण के मामले में भी कहा कि कानून अभियोजन एवं जांच के लिए अपराधियों को उनके जीवन स्तर के हिसाब से भेदभाव नहीं करता है| पी पी शर्मा के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि अभियोजन स्वीकृति के बिना आरोप पत्र दाखिल करना अवैध नहीं है| मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय घोषणा, जिसपर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं, के अनुच्छेद १ में कहा गया है कि गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से सभी मानव प्राणी  जन्मजात स्वतन्त्र तथा  समान हैं|

एक तरफ देश भ्रष्टाचार की अमरबेल की मजबूत पकड़ में है तो दूसरी ओर अभियोजन स्वीकृति की औपचारिकता के अभाव में बहुत से प्रकरण बकाया पड़े हुए हैं| सीबीआई के पास अभियोजन स्वीकृति की प्रतीक्षा में १२९ व्यक्तियों का अभियोजन बकाया है, जिसमें सबसे पुराना मामला जुलाई २००९ का है| ठीक इसी प्रकार भ्रष्टाचार निराधक ब्यूरो राजस्थान के पास २०० से अधिक लोक सेवकों का अभियोजन, अभियोजन स्वीकृति की प्रतीक्षा में बकाया है| जिसमें सबसे पुराना मामला अप्रैल २००५ का है|
इससे भी अधिक गंभीर तथ्य यह है कि जिन मामलों में स्वीकृति मिल जाती है, या मामले स्वीकृति हेतु विचाराधीन होते हैं, उनको  भी चुनौती देकर न्यायालयों से स्थगन प्राप्त कर विवाद को और लंबा खींचा जाता है| कानून में अभियोजन स्वीकृति के लिए कोई समयावधि अथवा प्रक्रिया निर्धारित नहीं हैं| यह भी स्पष्ट नहीं है कि व्यक्तिगत परिवाद की स्थिति में यह स्वीकृति किस प्रकार और किसके द्वारा मांगी जायेगी| कुलमिलाकर स्थिति भ्रमपूर्ण एवं अपराधियों के अनुकूल है| यद्यपि राजस्थान सरकार के पूर्व में प्रशासनिक आदेश थे कि अभियोजन स्वीकृति का निपटान १५ दिवस में कर दिया जावे| बाद में केंद्रीय सतर्कता आयोग ने २ माह के भीतर अभियोजन स्वीकृति का निपटान करने के आदेश जारी किये हैं, किन्तु इन आदेशों की अनुपालना की वास्तविक  स्थिति  उपरोक्त आंकड़ों से स्वत: स्पष्ट है|

आपराधिक प्रकरणों में प्रसंज्ञान मात्र तभी लिया जाता है, जब प्रथम दृष्टया मामला बनता हो| अतः अनावश्यक परेशानी की आशंका निर्मूल है| इसका दूसरा अभिप्राय यह निकलता है कि न्यायालयों द्वारा प्रसंज्ञान लिये जाने की प्रक्रिया में विश्वास का अभाव होना है तथा प्रसंज्ञान के न्यायिक निर्णय की प्रशासनिक पुनरीक्षा कर एक वर्ग विशेष के अपराधियों के अभियोजन की स्वीकृति रोक कर न्यायिक अभियोजन के प्रयास को विफल करना है| वहीं इसका अभिप्राय यह भी है कि दूसरी ओर देश के आम नागरिक एवं वंचित (निम्न) श्रेणी के लोक सेवकों को उच्च पदस्थ लोक सेवकों के लिये अविश्वसनीय समझी जाने वाली न्यायिक प्रक्रिया द्वारा परेशान किये जाने हेतु खुला छोड़ना है|

एक सक्षम मजिस्ट्रेट को किसी भी मामले का प्रसंज्ञान लेने की कानूनी शक्ति प्राप्त है तथा अभियोजन स्वीकृति के अभाव में प्रसंज्ञान को बाधित करना उचित न्यायिक क्षेत्राधिकार के प्रयोग में जानबूझकर अवरोध उत्पन्न करना है| प्रायः अभियोजन स्वीकृति के प्रावधान को सही ठहराते समय यह तर्क दिया जाता है कि यह प्रावधान लोक सेवकों को अनावश्यक परेशानी से बचाने के लिए उचित और जरूरी है| जबकि निचले स्तर के लगभग ९०% लोक सेवक, जिनका जनता से सीधा वास्ता पड़ता है और उनकी नियुक्ति राज्यपाल या राष्ट्रपति की अधिकृति के बिना की जाती है, उनको यह संरक्षण उपलब्ध नहीं है तथा वे ऐसी सुरक्षा के बिना भी लोक सेवक के रूप में सेवाएं दे रहे हैं| इनका जनता से सीधा संपर्क होने से उनके अभियोजन की संभावनाएं तथा जोखिम भी अधिक है| इसके विपरीत विकसित माने जाने वाले  देश इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों के सभी स्तर के लोक सेवक धारा १९७ जैसी किसी सुरक्षा के बिना जनता को अपनी सेवाएं दे रहे हैं तो हमारे देश में इस ऊपरी लोक सेवकों के वर्ग विशेष को ऐसी कानूनी सुरक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता है| फिर भी यदि अनुचित अभियोजन या परेशानी का अंदेशा हो व प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता हो तो उपरी स्तर के सक्षम लोक सेवक दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ के अंतर्गत अन्य नागरिकों की तरह हाई कोर्ट से राहत प्राप्त कर सकते हैं|

दण्ड प्रक्रिया संहिता एक सारभूत या  मौलिक कानून न होकर प्रक्रियागत कानून है, जिसका उद्देश्य सारभूत कानून को लागू करने में सहायता करना है, जबकि अभियोजन स्वीकृति सम्बन्धित प्रावधान तो कानून लागू करने में बाधक साबित हो रहा है| इसलिए प्रक्रियागत कानूनों को बाध्यकारी के बजाय निर्देशात्मक ही बताया गया है| स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कैलाश बनाम ननकू के मामले में कहा है कि यद्यपि व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश ८ नियम १ आज्ञापक प्रवृति का है, किन्तु प्रक्रियागत कानून का भाग होने से यह निर्देशात्मक ही है| इस सिद्धांत को भी यदि धारा १९७ के मामले में समान रूप से लागू किया जाय तो भी अभियोजन स्वीकृति मात्र एक रिक्त औपचारिकता ही हो सकती है, अपरिहार्य नहीं|

उक्त तथ्यों को ध्यान रखते हुए राज्य सभा की ३७ वीं रिपोर्ट दिनांक ०९.०३.१० में अनुशंसा की गयी  है कि अभियोजन स्वीकृति पर १५ दिवस के भीतर निर्णय कर लिया जाये अन्यथा उसे स्वतः ही  स्वीकृति मान लिया जावे| पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,१९८६ की धारा १९ (१)(क) में प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनयम के अंतर्गत अपराध का सरकार द्वारा शिकायत के बिना प्रसंज्ञान नहीं लेगा, किन्तु उपधारा (ख) में यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा इस आशय का  ६०  दिन का नोटिस देने के पश्चात ऐसी कार्यवाही संस्थित की जा सकेगी| अधिक सुरक्षा के लिए ऐसा ही प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता में भी किया जा सकता है|

अतः अभियोजन पूर्व स्वीकृति का धारा १९७ का प्रावधान कानूनी रूप से किसी भी प्रकार से अपेक्षित, तर्कसंगत, न्यायोचित एवं भारतीय गणराज्य में  संवैधानिक नहीं है और इसे तत्काल हटाये जाने की आवश्यकता का संसद को मूल्यांकन करना चाहिए है|

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