Saturday, April 17, 2010
आपराधिक एवं भ्रष्ट तत्वों से ग्रसित संसदीय पवित्रता की रक्षा कौन करेगा?
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय स्वागतयोग्य तो नहीं ही कहा जा सकता। विशेषकर तब जबकि संसद में आपराधिक तत्वों, पूर्व भ्रष्ट नौकरशाहों और बाहुबलियों का जिस तेजी से इजाफा हो रहा है, उससे संसद की पवित्रता अनेक बार कलुसित हो चुकी है। संसद में अनेक बार अभद्र एवं असंसदीय नजारे देखने को मिल चुके हैं। ऐसे में यह मान लेना कि संसद द्वारा निर्वाचित पीठासीन अधिकारी पूरी तरह से निष्पक्ष, न्यायप्रिय और इतना श्रेृष्ठ होगा कि उसके निर्णय हमेशा ही इतने पवित्र होंगे कि उनमें न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं होगी। इसे सहज ही स्वीकार नहीं किया जा सकता।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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दिल्ली से प्रकाशित एक दैनिक हिन्दी समाचार-पत्र लिखता है कि "पिछले सालों में बनी न्यायपालिका और विधायिका में टकराव जैसी स्थिति के बीच भारतीय लोकतंत्र के लिए यह खबर सुकून देने वाली कही जा सकती है। जिसमें सर्वोध न्यायालय की संविधान पीठ ने अपने एक अहम फैसले में साफ कर दिया कि संसद की कार्यवाही की वैधता अदालत नहीं जाँच सकती। यह काम करने का अधिकार सिर्फ संसद को ही है।"
मैं उक्त समाचार-पत्र की टिप्पणी से तनिक भी सहमत नहीं हँू और यदि सर्वोच्च न्यायालय ने संसद से टकराव टालने की बात को ध्यान में रखकर यह निर्णय सुनाया है तो यह घोर चिन्ता और निराशा का विषय है। क्योंकि न्याय का तो प्राणबिन्दु ही यह है कि न्याय करते समय इस तथ्य की ओर तनिक भी ध्यान न दिया जावे कि पक्षकार कौन है। अन्यथा तो मुःह देखकर तिलक करने वाली बात होगी। जिसका सीधा अर्थ होगा कि न्यायपालिका पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर कार्य कर रही है।
इससे भी अधिक खेद का विषय तो यह है कि न्यायपालिका के निर्णय पर अपने विचार को थोप कर एक राष्ट्रीय कहलाने वाला समाचार-पत्र देश के लोगों में यह स्थापित करने का प्रयास कर रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद से टकराव टालकर श्रेृष्ठता का कार्य किया है! जबकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा क्यों किया? फिर भी सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय स्वागतयोग्य तो नहीं ही कहा जा सकता। विशेषकर तब जबकि संसद में आपराधिक तत्वों, पूर्व भ्रष्ट नौकरशाहों और बाहुबलियों का जिस तेजी से इजाफा हो रहा है, उससे संसद की पवित्रता अनेक बार कलुसित हो चुकी है। संसद में अनेक बार अभद्र एवं असंसदीय नजारे देखने को मिल चुके हैं। ऐसे में यह मान लेना कि संसद द्वारा निर्वाचित पीठासीन अधिकारी पूरी तरह से निष्पक्ष, न्यायप्रिय और इतना श्रेृष्ठ होगा कि उसके निर्णय हमेशा ही इतने पवित्र होंगे कि उनमें न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं होगी। इसे सहज ही स्वीकार नहीं किया जा सकता।
इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि कोर्ट को संसदीय कार्यवाही में हस्तक्षेप करने का कोई हक नहीं है, न्याय की कसौटी पर खरा सोना प्रतीत नहीं होता। इस निर्णय के उलट न्यायपालिका ने पूर्व में अनेकों बार संसद के निर्णयों में हस्तक्षेप भी किया है। यहाँ प्रश्न संसद के निर्णय और संसद की कार्यवाही में अन्तर समझने का है, क्योंकि संसद के निर्णयों को तो न्यायपालिका सैकडों बार असंवैधानिक करार दे चुकी है, जिनमें कुछ संविधान संशोधन भी शामिल हैं। लेकिन यहाँ पर विचारणीय सवाल यह है कि संसद के सदन द्वारा बहुमत से निर्वाचित एक सांसद, संसद का संचालन करता है, जो चुने जाने से पूर्व दल विशेष का सदस्य होता है और चुने जाने के बाद भी कहीं न कहीं वह अपने दल के प्रति निष्ठावान बना रहता है।
जहाँ तक विवादित मामले में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष (शिवसेना के) मनोहर जोशी का सवाल है तो शाहरूख खान की फिल्म माई नैम इज खान के प्रदर्शन के समय पर उनका असली साम्प्रदायिक चेहरा देश के सामने प्रकट हो चुका है। यद्यपि इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि लोकसभा अध्यक्ष के रूप में उनका निर्णय कैसा रहा होगा। लेकिन इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि लोकसभा अध्यक्षों की नस-नस में अपने दल की अवाजा प्रतिध्वनित होती रहती है।
ऐसे लोगों द्वारा संसदीय कार्यवाही का संचालन, विशेषकर बाहुबलियों, जघन्य आरोपों में लिप्त और सजायाफ्ता सदस्यों के बहुमत वाली संसद का संचालन इतना पवित्र और निषपक्ष नहीं माना जाना चाहिये कि न्यायपालिका को उसमें हस्तक्षेप करने का हक ही नहीं रहे। इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए मुझे सम्पूर्ण विश्वास है कि आने वाले समय में देश को सर्वोच्च न्यायपालिका स्वयं ही अपने उक्त निर्णय को उलट देगी।
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