सवाल यह उठता है कि यदि यही आरोप महिला हॉकी टीम की खिलाडी ने हॉकी संघ के बाहर के किसी व्यक्ति पर लगाया होता, मसलन किसी दर्शक पर, क्या तब भी हॉकी इण्डिया ऐसा ही करती?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 चीख-चीख कर कहता है कि भारत में सभी लोगों को कानून के समझ समान समझा जायेगा और सभी लोगों को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा। अनुच्छेद13 में यह भी कहा गया है कि यदि उक्त प्रावधान का उल्लंघन करने वाला या कम करने वाला कोई कानून सरकार द्वारा बनाया जाता है, तो ऐसा कानून उल्लंघन की सीमा तक शून्य माना जायेगा। इतने स्पष्ट और सख्त प्रावधान के बावजूद भी हमारे देश में लोगों से उनकी हैसियत के अनुसार अलग-अलग तरह से बर्ताव करने के लिये अलग-अलग प्रकार के कानून बनाये हुए हैं।
राष्ट्रीय महिला हॉकी टीम के कोच एमके कौशिक पर एक खिलाडी ने यौन उत्पीडन का आरोप लगया है, जिस पर कौशिक के विरुद्ध कोई आपराधिक मुकदमा दर्ज नहीं करवाया गया है, बल्कि हॉकी इण्डिया ने इस मामले की जांच के लिए राजीव मेहता की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति गठित कर दी है जिसमें पूर्व खिलाडी जफर इकबाल, अजीत पाल सिंह और सुदर्शन पाठक को भी शामिल किया गया है।
सवाल यह उठता है कि यदि यही आरोप महिला हॉकी टीम की खिलाडी ने हॉकी संघ के बाहर के किसी व्यक्ति पर लगाया होता, मसलन किसी दर्शक पर, क्या तब भी हॉकी इण्डिया ऐसा ही करती? कर ही नहीं सकती थी, क्योंकि बाहरी किसी व्यक्ति के मामले में उसे जाँच करने का कोई हक नहीं है। यहाँ पर सवाल यह उठता है कि हॉकी इण्डिया को हॉकी से जुडे विवादों या मामलों की जाँच करने के लिये तो अपनी खेल विशेषज्ञता का उपयोग करना चाहिये, इस पर किसी को काई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन हॉकी के पूर्व खिलाडियों को आपराधिक मामलों की जाँच के लिये बनायी गयी समिति में शामिल करके उनसे उस अपराध के लिये जाँच करवाई जा रही है, जो भारतीय दण्ड संहिता में दण्डनीय अपराध है, यह किस कानून द्वारा स्वीकृत है?
आश्चर्यजनक तो यह है कि देश के लोग चुपचाप मूक दर्शक बने बैठे हैं! क्या कौशिक के विरुद्ध भी भारतीय दण्ड संहिता के तहत आपराधिक मामला दर्ज नहीं होना चाहिये? यदि पुलिस द्वारा जाँच की जाती है, तो कौशिक की गिरफ्तारी भी सम्भव है, जबकि विभागीय जाँच में मामले को कुछ सुनवाईयों के बाद रफा दफा कर दिया जायेगा, जेसा कि हमेशा से होता आ रहा है। केवल हॉकी की ही बात नहीं है, प्रत्येक सरकारी विभाग में भी इसी प्रकार से उन सभी मामलों में जो आपराधिक प्रकृति के हैं और जिनमें भारतीय दण्ड संहिता के तहत कठोर कारावास की सजा का प्रावधान है, सभी को विभागीय जाँच के नाम पर आपसी गठजोड के जरिये रफा दफा कर दिया जाता है। विभाग की ओर से दबाव डालकर अधिकतर मामलों में तो शिकायतकर्ता को प्रकरण को वापस लेने के लिये ही विवश कर दिया जाता है।
संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 13 की सरेआम धज्जियाँ उडाई जा रही हैं। लोक सेवक जो जनता के नौकर हैं, लोक सेवक से लोक स्वामी बन बैठे हैं। सबसे बडा आश्चर्य तो यह है कि न्यायपालिका के अन्दर भी इस प्रकार के मामलों में आपराधिक मुकदमें दायर करने के बजाय, विभागीय जाँच का ही सहारा लिया जाता है। जिन लोगों को इस प्रकार की नाइंसाफी एवं भेदभाव से जरा भी पीडा हो रही हो, या जिन्हें अपने नौकरों की कारगुजारियों को रोकने की जरा सी भी इच्छा हो, उन्हें चाहिये कि इस प्रकार के मामलों को अपने राज्य के उच्च न्यायालय में या सर्वोच्च न्यायलय में याचिका दायर करके संविधान के (क्रमशः) अनुच्छे 226 एवं 32 के तहत चुनौती दें।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी, केवल मेरे लिये ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्लॉग जगत के लिये मार्गदर्शक हैं. कृपया अपने विचार जरूर लिखें!