अभी मृत्यु और जीवन की कामना से कम्पित है यह शरीर!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
जब कोई कहता है कि वह 25 वर्ष का हो गया तो इसका सही अर्थ होता है-उसने अपने जीवन को 25 वर्ष जी लिया है या वह 25 वर्ष मर चुका है।
क्योंकि जीवन के साथ ही साथ मृत्यु का भी प्रारम्भ है। मृत्यु से कम्पन या भय उसी दशा में है, जबकि हमने जो जीवन गुजार दिया या जिसे हम गुजार रहे हैं, उसमें कहीं कमी रह गयी है।
प्रकृति के नियम के अनुसार तो जीवन जी लेने के आनन्द के बाद तो सन्तोष होना चाहिये।
जीवन को जी लेने के बाद तो आनन्द की अनुभूति होनी चाहिये और शनै-शनै, जीवन का मृत्यु से साक्षात्कार होता जाता है। ऐसे में मृत्यु ये भय कैसा?
मृत्यु और जीवन का साथ तो दिन और रात्री की भांति है। सदैव दोनों का अस्तित्व है, लेकिन दोनों एक साथ दिखाई नहीं देते। इस कारण हमें केवल जीवन का ही अहसास रहता है और जीवित रहते हुए हम जिन स्वजनों को शरीर त्यागते हुए देखते हैं, उसे मृत्यु का अन्तिम सत्य मानकर, हम मृत्यु ये घबरा जाते हैं। जबकि सच तो यही है कि प्रत्येक क्षण हम जो जीवन जी रहे हैं, अगले ही क्षण, पिछले क्षण को सदा-सदा के लिये समाप्त कर (गंवा) चुके होते हैं।
समाप्त ही तो मृत्य का अन्तिम सत्य है। इसलिये प्रतिक्षण समाप्त और प्रारम्भ दोनों क्रियाएँ साथ-साथ चल रही हैं। हमें केवल जीवन दिखता है। मृत्यु को हम देखना नहीं चाहते। देख सकते हैं, बशर्ते कि प्रत्येक क्षण को सकारात्मक एवं संजीदगी से जी सकें।
जब सबकुछ सजगता से जी लिया जाये तो पछतावा किस बात का? सारी तकलीफ तो इच्छानुसा नहीं जी पाने की विवशता में ही छिपी है।
जिसके लिये समाज की सीमाएँ एवं कभी न समाप्त होने वाली भौतिक लालसा जिम्मेदार है और इन दोनों में हम ऐसे बंधे रहते हैं कि प्रतिपल जीने के बजाय केवल मरते ही रहते हैं और पूर्णता से नहीं जी पाने के कारण मृत्यु के आसन्न भय से भयभीत रहकर न तो वर्तमान को जी पाते हैं और न ही भविष्य को संवार पाते हैं।
ऐसे में जीवन और मृत्यु के बीच कम्पन या भयाक्रान्त होना स्वाभाविक है।
हमने अपने जीवन का सौन्दर्य समाप्त करके मृत्य का वरण कर लिया है। जिसके चलते हम जीवन से दूर और दूर चले जा रहे हैं और करीब आती मृत्य से बुरी तरह से भयभीत हैं!
सर्वप्रथम आभार आपके आगमन एवम सार्थक विचार-विमर्श के लिए । जीवन और मृत्यु पर लेख अच्छा लगा । दरअसल जो सच है - सहज है वही है मृत्यु , उस मृत्यु से डरना नहीं , उसे समझना ही श्रेयष्कर होना चाहिए। इस समझ के साथ की जीवन जीने का , होश में जीने का नाम है जीवन । विषय होना चाहिए कैसे यह सार्थक बने । ऐसा जो कर सका , उसे देखकर शायद वह भी प्रसन्न हो सकता जिसने इसे हमें दिया है । सार्थक लेखन । अनंत शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteसार्थक लेखन
ReplyDeleteविचारणीय लेख के लिए बधाई
जीवन की सार्थकता पर सारगर्भित लेख । आपको अपने अभियान हेतु बधाई...
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट 'भ्रष्टाचार पर सशक्त प्रहार' पर आपके सार्थक विचारों की प्रतिक्षा है...
www.najariya.blogspot.com नजरिया
विचारणीय लेख है , संयोग से आज ही मैंने पुनर्जन्म पर एक लेख प्रकाशित किया है
ReplyDeletehttp://2010bloggers.wordpress.com
जीवन के बारे में एक छोटा सा लेख यहाँ पढ़ें आपको अवश्य पसंद आएगा
http://my2010ideas.blogspot.com/2010/11/blog-post.html
मन को शान्त कर देने वाला लेख !
ReplyDeleteजीवन-मृत्यु के दर्शन से भरपूर पोस्ट देने के लिए आभार
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