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6.11.10

मोरेल नदी बस दुर्घटना : उत्तर मांगते सवाल?

Monday, March 15, 2010


मोरेल नदी बस दुर्घटना : उत्तर मांगते सवाल?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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यदि हम इस दुर्घटना से सबक सीखना चाहते हैं तो बहुत जरूरी है कि इस आलेख में उठाये गये सवालों के जवाब तलाशें। सरकार, प्रशासन एवं गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों पर जन निगरानी रखें, जो हमारा मौलिक अधिकार है। जिसके लिये सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 बहुत बडा हथियार है। इसके साथ-साथ ऐसे दुःखद समय में पुलिस द्वारा किये जाने वाले अहम योगदान को भी नहीं भूलें और उन्हें भी सच्चे मन से धन्यवाद एवं प्रोत्साहन अवश्य दें।
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राजस्थान के सवाई माधोपुर जिला मुख्यालय के निकट स्थित मोरेल नदी के पुल पर तूडे (चारे) से भरे जुगाड से टकराकर बस नदी में गिर गयी और छब्बीस निर्दोष विद्यार्थी असमय काल के गाल में समा गये। जिनमें बस चालक, परिचालक, एक अध्यापिका और एक हलवाई भी शामिल हैं। बस दुर्घटना में मरने वाले सभी लोगों के परिजनों पर क्या गुजर रही होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है, लेकिन जो हो गया, उसे लौटाया नहीं जा सकता। हाँ ऐसी दुर्घटनाओं से सबक अवश्य ही सीखा जाना चाहिये। इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या यह दुर्घटना रोकी जा सकती थी? क्या आगे से ऐसी दुर्घटनाएँ ना हों इसके सम्बन्ध में कोई नीति या नियम बनाये जा सकते हैं? इस प्रकार की दुर्घटनाओं में मरने वालों के परिजनों को राहत प्रदान करने के नाम पर, राज्य सरकार द्वारा उनका मजाक उडाने वाली घोषणा करना कितना जायज है? आदि अनेक बातें हैं, जिन पर समाज और सरकार को विचार करके निर्णय लेने की जरूरत है।

सबसे पहली बात जो मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ, वो यह कि जो लोग पुलिस को बात-बात पर कोसते रहते हैं। उनके लिये विचार करने की है। हम सभी जानते हैं कि मूलतः पुलिस की तैनाती अपराधों की रोकथाम और अपराधियों को पकडने के लिये की जाती है, लेकिन बस में फंसे लोगों को बस से निकाल कर, अस्पताल तक पहुँचाने में न मात्र पुलिस ने अहम और संवेदनशीलता का परिचय दिया, बल्कि इस कार्य में सहयोग करने के लिये पुलिस ने स्थानीय ग्रामवासियों से भी सहयोग के लिये आग्रह एवं अनुरोध किया, तब जाकर घायलों को अस्पतालों तक पहुँचाया जा सका। इस घटना के सन्दर्भ में एक बार फिर से यह बात समझने की है कि हमेशा पुलिस को कोसने से काम नहीं चलेगा। ऐसे समय पर पुलिस को शाबासी भी देनी चाहिये। इस दुर्घटना के बाद मृतकों को निकालने और घायलों को अस्पताल तक पहुँचाने में पुलिस की भूमिका सराहनीय रही, जिसके लिये मैं सभी को व्यक्तिगत रूप से तथा मेरी अध्यक्षता में सत्रह राज्यों में संचालित भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के 4100 से अधिक आजीवन सदस्यों की ओर से शाबासी और शुभकामनाएँ ज्ञापित करता हूँ और आशा करता हूँ कि न मात्र सवाई माधोपुर की पुलिस, बल्कि सम्पूर्ण देश की पुलिस ऐसे समय में ही नहीं, बल्कि प्रत्येक दुःखी इंसान के आँसू पौंछते समय अधिक संवदेनशीलता का परिचय देगी।

दूसरी बात तूडे (गैंहूं का भूसा) से भरे जुगाड के टकराने के कारण बस की दुर्घटना होना बताया जा रहा है। यदि यह सही है, तो बहुत बडा अपराध है, क्योंकि जुगाड एक ऐसा गैर-कानूनी वाहन है जो उत्तर-पूर्व एवं पूर्वी राजस्थान की सडकों पर मौत के रूप में सरेआम घूम रहा है। अनेक न्यायिक निर्णयों के उपरान्त भी प्रशासन द्वारा इस पर पाबन्दी नहीं लगायी गयी है। जबकि इसी माह के प्रारम्भ में राजस्थान हाई कोर्ट ने राज्य में बिना अनुमति के संचालित हो रहे जुगाडों के मामले में राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह इनके संचालन को बंद करने के लिए चार सप्ताह में कोई पॉलिसी बनाए। उस समय मामले की सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की ओर से कहा था कि सरकार ने जिला परिवहन अधिकारियों सहित अन्य अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे जुगाड को जब्त करें और उन्हें नष्ट कर दें। यह भी कहा गया कि निर्देशों की पालना में अभी तक राज्य में एक हजार जुगाडों को जब्त किया जा चुका है। लेकिन खंडपीठ इससे संतुष्ठ नहीं हुई और राज्य सरकार को जुगाडों के संचालन को बंद करने के लिए पॉलिसी बनाने का निर्देश दिया।

इसलिये जुगाडों को सडकों पर चलने देने के लिये जिम्मेदार राज्य प्रशासन और अन्ततः राज्य सरकार को भी इस दुर्घटना के लिये जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिये। मृतकों के परिवार जनों को राज्य सरकार के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा दायर करने मुआवजा मांगा जाना चाहिये और साथ ही साथ कोर्ट से यह भी आग्रह किया जाये कि आगे से जुगाड सडकों पर चलते पाये जाने पर सम्बन्धित क्षेत्र के परिवहन विभाग के अफसरों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दायर किये जावें। स्वयं जुगाड चलाने वालों को भी इस दुर्घटना से सबक सीखकर स्वैच्छा से जुगाड संचालन बन्द कर देना चाहिये। यदि वे बन्द नहीं करेंगे तो वे ऐसी ही किसी दुर्घटना को जन्म देंगे या फिर स्वयं कानून के शिकंजे में फंस कर सजा भुगतेंगे।

तीसरे राज्य सरकार द्वारा मृतकों के परिजनों को केवल पचास हजार रुपये राहत प्रदान करने की घोषणा करना, हृदय विदारक दुःख झेल रहे परिवारों के जख्मों पर नमक छिडकने के सदृश्य है! यदि ये मृतक किसी कॉन्वेण्ट स्कूल के रहे होते, तब भी क्या सरकार ऐसा ही करती? ऐसी घोषणा करने वालों को शर्म करनी चाहिये। जो सरकार स्वयं ही इन जुगाडों के संचालन के लिये जिम्मेदार है, वो सरकार मात्र पचास हजार की राहत की घोषणा करके पल्ला झाड ले, ऐसा नहीं होना चाहिये। सामाजिक कार्यकर्ताओं को सूचना अधिकार के तहत राज्य सरकार द्वारा दुर्घटना और हादसों में मारे गये लोगों को पिछले पांच वर्ष में घोषित की गयी राहत राशि की जानकारी प्राप्त करके पता लगाना चाहिये। जानकारी मिलने पर साफ हो जायेगा कि सरकार मृतकों की हैसियत और पृष्ठभूमि देखकर राहत राशि की घोषणा करती है। प्राप्त जानकारी के आधार पर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करके सिद्ध किया जा सकता है कि राज्य सरकार अपने नागरिकों के साथ भेदभाव करती है, जो न मात्र लोकतन्त्र का मजाक है, बल्कि असंवेदनशीलता का भी परिचायक है। आम लोगों को आगे आकर सरकार की इस प्रकार की मनमानियों पर प्रतिबन्ध लागाना चाहिये। लोगों को सरकार पर दबाव बढाकर मरने वालों के प्रति एक समान नीति एवं नियत अपनाने के लिये सरकार को विवश करने की जरूरत है।

अन्तिम और महत्वूपर्ण बात यह कि जिस बस की दुर्घटना हुई है, उस बस में विद्यार्थियों को एज्यूकेशन ट्यूर पर ले जाया गया था। प्रत्येक बच्चे से चार हजार रुपये अग्रिम वसूले गये थे। इस प्रकार के ट्यूर प्रत्येक गैर-सरकारी शिक्षण संस्थान में पिकनिक या एज्यूकेशन ट्यूर के नाम पर करवाये जाते हैं। जिनमें प्रत्येक विद्यार्थी को अनिवार्य रूप से शामिल होना होता है। एक प्रकार से यह भी इन शिक्षण संस्थानों ने कमाई का जरिया बना लिया है। जिन गरीब परिवारों के बच्चे पढाई के लिये ही मुश्किल से धन जुटा पाते हैं, उन परिवारों के लिये ऐसे ट्यूर पर खर्च होने वाली धनराशि जुटाना भारी पडता है और उन्हें ऊँची ब्याज दर पर कर्जा लेकर धन जुटाना होता है। जबकि मैं नहीं समझता कि इन ट्यूरों से विद्यार्थियों का शैक्षिक स्तर सुधारने में कोई सुधार होता होगा? इसलिये इस बात की भी पडताल करने की जरूरत है कि क्या सरकार की ओर से गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों को इस प्रकार के ट्यूर आयोजित करने की स्थायी स्वीकृति मिली हुई है या ऐसे ट्यूर के आयोजन से पूर्व ऐसी स्वीकृति ली जाती है या फिर यह व्यवस्था मनमाने तौर पर चलाई जा रही है? जिन शिक्षण संस्थानों के पास अपने विद्यार्थियों के लिये कानूनी रूप से जरूरी और स्वास्थ्य की दृष्टि से अपरिहार्य खेल के मैदान तो हैं नहीं फिर भी सरकारी बडे-बाबुओं की मेहरबानी से उनको मान्यता मिली हुई है, उन्हें ऐसे ट्यूर आयोजित करके धन कमाने के लिये किसने अधिकृत किया हुआ है? इस बात की जानकारी अभिभावकों और देश के लोगों को होनी चाहिये? यदि इसकी कोई नीति या नियम रहे होते तो बस में निर्धारित संख्या से अधिक सवारी कैसे बैठाई जा सकती थी?

यदि हम इस दुर्घटना से सबक सीखना चाहते हैं तो बहुत जरूरी है कि इस आलेख में उठाये गये सवालों के जवाब तलाशें। सरकार, प्रशासन एवं गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों पर जन निगरानी रखें, जो हमारा मौलिक अधिकार है। जिसके लिये सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 बहुत बडा हथियार है। इसके साथ-साथ ऐसे दुःखद समय में पुलिस द्वारा किये जाने वाले अहम योगदान को भी नहीं भूलें और उन्हें भी सच्चे मन से धन्यवाद एवं प्रोत्साहन अवश्य दें।

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