‘‘मैंने अपनों की ओर से दिये गये दर्द और जख्मों को झेला है| सच तो यह है कि मैं पल प्रतिपल झेलते रहने को विवश हूँ|’’
यह आज बहुत सारे लोगों की वैयक्तिक हकीकत है, लेकिन यह कोई नयी या बहुत बड़ी बात नहीं हैं| करोड़ों लोगों को इस प्रकार के अपनों के दिये दर्द या इससे भी भयंकर दर्द झेलने पड़ते हैं| इसीलिये तो इस प्रकार के दर्दमन्दों को कहीं, किसी अदालत में न्याय नहीं मिलता है| कोई मानव अधिकार संगठन ऐसे लोगों के दु:ख-तकलीफों में मदद करने आगे नहीं आता है| बल्कि कड़वा सच तो यह है कि आपसी रिश्तों, रक्त-सम्बन्धों और सामाजिक बन्धनों के कारण मिलने वाले दु:ख, तकलीफ और जख्मों से निजात पाने के लिये प्रयास करने वालों को समाज, सामाजिक संगठनों और मानव अधिकारों की रक्षा की बात करने वालों की आलोचना झेलने को भी विवश होना पड़ता है| ऐसे में सबके अपने-अपने दर्द होते हैं|
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