Tuesday, May 18, 2010
आरटीआई एक्ट की अवमानना करने वालों
को राजस्थान सूचना आयोग का संरक्षण!
यहाँ उन मामलों की बात की जाये जिनमें लोक सूचना अधिकारी का पक्ष सुनने के बाद राज्य सूचना आयोग अपीलार्थी के पक्ष में निर्णय देते हैं, जिनमें सूचना उपलब्ध होने के उपरान्त भी लोक सूचना अधिकारी एवं प्रथम अपील अधिकारी द्वारा सूचना नहीं दी गयी होती है। ऐसे मामलों में धारा 20 के तहत दण्डात्मक कार्यवाही करने के बजाय, राज्य सूचना आयोग की ओर से अधिकतर मामलों में निर्णय दिया जाता है कि लोक सूचना अधिकारी द्वारा एक माह के अन्दर सूचना प्रदान कर दी जावे। इसके बाद भी अनेक मामलों में सूचना नहीं मिलती है। अनेक सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं का तो यहाँ तक कहना है कि उनकी ओर से लिखित में या मौखिक रूप से द्वितीय अपील में उठाये जाने वाले मुद्दों या तर्कों की अपील के निस्तारण के समय चर्चा तक नहीं की जाती है। बल्कि उठाये गये तर्कों की अनदेखी करके निर्णय सुनाये जाते हैं। इसे न्याय को विफल करने की प्रक्रिया के सदृश्य समझा जाना चाहिये।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई एक्ट), 2005 की धारा 20 में साफ शब्दों में लिखा है कि यदि राज्य सूचना आयोग की किसी मामले का निर्णय करते समय यह राय हो किे लोक सूचना अधिकारी ने बिना किसी युक्तियुक्त (समुचित) कारण के सूचना के लिये किसी आवेदन को प्राप्त करने से इनकार कर दिया हो या निर्धारित समय अविधि (तीस दिन) के भीतर सूचना नहीं दी हो......तो राज्य सूचना आयोग ऐसे लोक सूचना अधिकारी के विरुद्ध निर्धारित अवधि गुजर जाने के बाद प्रतिदिन 250 रुपये के हिसाब से जुर्माना अधिरोपित करेगा, लेकिन ऐसे जुर्माने की कुल राशि 25000 से अधिक नहीं होगी। इसी धारा के अन्त में यह भी उल्लेख किया गया है कि लोक सूचना अधिकारी के विरुद्ध विभागीय सेवा नियमों के तहत अनुशासनिक कार्यवाही की सिफारिश भी की जा सकेगी।
राजस्थान के सन्दर्भ में उक्त नियम का अनुपालन करवाने की कानूनी जिम्मेदारी राजस्थान सूचना आयोग की है, लेकिन राज्य के सूचना अधिकार कानून से जुडे कार्यकर्ता एवं सूचना प्राप्ति के इच्छुक लोगों का इस बात से बेहद निराशा हो रही है कि इस प्रावधान का अनुपालन करवाने के लिये राज्य सूचना आयोग बिलकुल भी संजीदा नहीं है, जो इस कानून में अपेक्षाओं के प्रतिकूल है। दूसरी ओर राज्य सूचना आयोग के समक्ष अपीलों का अम्बार लग रहा है। जिसके कारण मामलों का शीघ्रता से निस्तारण नहीं हो पा रहा है। इन दोनों हालातों के लिये सीधे तौर पर केवल राज्य सूचना आयोग स्वयं ही सम्पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। इस बात को समझने के लिये सूचना प्राप्त करने की प्रक्रिया पर थोडा सा प्रकाश डालना जरूरी है।
एक आवेदक सूचना प्राप्त करने के लिये निर्धारित शुल्क अदा करके सम्बन्धित लोक सूचना अधिकारी के कार्यालय में आवेदन करता है। सर्व-प्रथम तो लोक सूचना अधिकारी द्वारा आवेदन प्राप्त ही नहीं किया जाता है या कई दिनों तक टरकाने के बाद आवेदन प्राप्त किया जाता है। जिनके आवेदन प्राप्त नहीं किये जाते हैं, फिलहाल उनकी पीडा को छोड दें और विवेचन के लिये केवल उन्हीं मामलों को सामने रखते हैं, जिन्हें लोक सूचना अधिकारी कार्यालय द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। आवेदन को निर्धारित 30 दिन तक इन्तजार करता है, लेकिन 30 दिन तक कोई जवाब नहीं दिया जाता है। 31 वें दिन अपील अधिकारी को अपील प्रस्तुत की जाती है। अपील अधिकारी के लिये निर्धारित अधिकतम 45 दिन अवधि में अपीलार्थी को कोई उत्तर नहीं देता है, तब थक हारकर द्वितीय अपील राज्य सूचना आयोग को पेश की जाती है।
राज्य सूचना आयोग जरिये नोटिस 21 दिन में उत्तर देने के लिये लोक सूचना अधिकारी को निर्देश देते हैं। नोटिस में यह भी उल्लेख किया जाता है कि यदि नोटिस का जवाब नहीं दिया गया तो धारा 20 के तहत कार्यवाही की जा सकती है। इसके बावजूद भी अधिकतर मामलों में 21 दिन में इस नोटिस का कोई उत्तर नहीं दिया जाता है। राज्य सूचना आयोग इसके उपरान्त भी ऐसे अनुशासनहीन लोक सूचना अधिकारियों के विरुद्ध अपने नोटिस के अनुसार किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं करता है और फिर से नोटिस जारी किया जाता है। कई मामलो में दो से तीन बार नोटिस जारी करने के बाद लोक सूचना अधिकारी स्वयं या अपने किसी प्रतिनिधि के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं।
इस दौरान सूचना प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को हर बार राज्य की राजधानी जयपुर में राज्य सूचना आयोग के दफ्तर में उपस्थित होना पडता है। यहाँ उन मामलों की बात की जाये जिनमें लोक सूचना अधिकारी का पक्ष सुनने के बाद राज्य सूचना आयोग अपीलार्थी के पक्ष में निर्णय देते हैं, जिनमें सूचना उपलब्ध होने के उपरान्त भी लोक सूचना अधिकारी एवं प्रथम अपील अधिकारी द्वारा सूचना नहीं दी गयी होती है। ऐसे मामलों में धारा 20 के तहत दण्डात्मक कार्यवाही करने के बजाय, राज्य सूचना आयोग की ओर से अधिकतर मामलों में निर्णय दिया जाता है कि लोक सूचना अधिकारी द्वारा एक माह के अन्दर सूचना प्रदान कर दी जावे। इसके बाद भी अनेक मामलों में सूचना नहीं मिलती है। अनेक सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं का तो यहाँ तक कहना है कि उनकी ओर से लिखित में या मौखिक रूप से द्वितीय अपील में उठाये जाने वाले मुद्दों या तर्कों की अपील के निस्तारण के समय चर्चा तक नहीं की जाती है। बल्कि उठाये गये तर्कों की अनदेखी करके निर्णय सुनाये जाते हैं। इसे न्याय को विफल करने की प्रक्रिया के सदृश्य समझा जाना चाहिये।
इन हालातों में लोक सूचना अधिकारी और प्रथम अपील अधिकारी अधिकतर मामलों में सूचना देना तो दूर सूचना प्राप्ति के आवेदनों पर कोई कार्यवाही करना ही जरूरी नहीं समझते हैं और राज्य सूचना आयोग की कोई परवाह नहीं करते हैं। परिणामस्वरूप सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत आम व्यक्ति को सूचना मिलना असम्भव हो गया है। इस कानून के तहत हर मामले में राज्य सूचना आयोग के समक्ष द्वितीय अपीलों का अम्बार लग रहा है और ऐसे में अधिक सूचना आयुक्तों के पदों के सृजन की मांग की जा रही है। जबकि यदि प्रत्येक मामले में राज्य सूचना आयोग धारा 20 के अनुसार दण्डात्मक कार्यवाही करने की इच्छाशक्ति दिखाने के अपने कानूनी कर्त्तव्य का निर्वाह करें तो अधिकतर मामलों में लोक सूचना अधिकारी कार्यालय से ही सूचना मिल जायेगी और मुश्किल से दस प्रतिशत मामलों में ही राज्य सूचना आयोग के समक्ष अपील पेश होंगी और जो होंगी उनमें अधिक गुणात्मक व त्वरित निर्णय होंगे।
इस प्रकार राज्य सूचना आयोग स्वयं ही सूचना का अधिकार अधिनियम की अवमानना करने वाले लोक सूचना अधिकारियों को दण्डित करने के स्थान पर, संरक्षण प्रदान कर रहा है। ऐसे में सूचना प्राप्त करने वालों का जमकर शोषण एवं अपमान हो रहा है और सूचना अधिकार कानून का मजाक उडाया जा रहा है। सरकारें तो चाहती ही नहीं कि सूचनाएँ मिलें, क्योंकि सूचना मिलेंगी तो काले कारनामें रुकेंगे और यदि काले कारनामें रुकेंगे तो काली कमाई कैसे होगी और यदि काली कमाई नहीं होगी तो भ्रष्ट अधिकारियों के एश-ओ-आराम के साधन एवं राजनेताओं के चुनाव खर्च के लिये अपार सम्पदा का अर्जन कैसे होगा?
इन लोगों के गैर-कानूनी कार्यों को दबे रहने देने में राजस्थान सूचना आयोग का समर्थन घोर चिन्ता एवं दुःख का विषय है। इस पर जनता और गैर-सरकारी संगठन ही लगाम लगा सकते हैं या सूचना अधिकार के प्रति दिल्ली हाई कोर्ट जैसी सच्ची श्रृद्धा प्रदर्शित करने वाले न्यायिक निर्णय सूचना आयोग को ठीक कर सकते हैं। कुछ न कुछ तो कदम उठाने ही होंगे। अन्यथा आजादी के बाद पहली बार मिले इस वास्तविक लोकतान्त्रिक अधिकार को भ्रष्ट एवं मनमानी की आदी अफसरशाही पूरी तरह से मृत घोषित कर देगी।
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