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6.11.10

पीटना क्रूरता नहीं, तो फिर क्या है-क्रूरता?



Thursday, April 15, 2010


पीटना क्रूरता नहीं, तो फिर क्या है-क्रूरता?

1-सुप्रीम कोर्ट कहता है कि बहु को पीटना क्रूरता नहीं है, ऐसे में यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि इन हालातों में आरोपी को पुलिस द्वारा पीटना क्रूरता कैसे हो सकती है? और यदि क्रूरता की यही परिभाषा है तो फिर मानव अधिकार आयोग का क्या औचित्य रह जाता है?

2-जिस पुरुष को पीडिता के आरोप को अन्तिम सत्य मानकर सजा सुनाई गयी उसके पक्ष में और जिस पुरुष को पीडिता के बयान को अन्तिम सत्य नहीं मानकर बरी कर दिया गया उसके विरोध में कौन खडा होगा, जिससे कि कोर्ट पुनर्विचार करने को विवश हो?

3-जो सफाई दी जाती है, वह यह है कि अलग-अलग जज के अलग-अलग विचारों के कारण ऐसे फैसले आते हैं! इसके विरोध में मेरा कहना है कि यदि कोई जज अपने विचारों के आधार पर फैसले करता है, तो वह जज की कुर्सी पर बैठने के काबिल ही नहीं है, क्योंकि इस देश में कानून का शासन है और कानून के अनुसार ही निर्णय लिये और किये जाते हैं।

4-क्या अब ऐसा समय आ गया है कि कोर्ट के निर्णयों के विरोध में भी जनता और संगठनों को सडक पर उतर कर, जिन्दाबाद-मुर्दाबाद करना होगा। यदि सुप्रीम कोर्ट के हाल में सुनाये गये फैसलों को देखें तो ऐसा ही लगता है।

5-इस बात की परवाह किये बिना बहस होनी चाहिये कि बहस के कारण न्यायिक अवमानना का खतरा उत्पन्न हो सकता है! क्योंकि डरे और सहमे हुए लोगों को कभी भी न्याय नहीं मिलता है।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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पिछले साल के अन्त में एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि सास द्वारा अपनी बहू को पीटना या अपने बेटे से उसे तलाक दिलवाने की धमकी दिलवाना, आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 498-ए के तहत क्रूरता नहीं है। इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट एक अन्य मामले में कह चुका है कि पति की मृत्यु के बाद उसकी दूसरी पत्नी को अनुकम्पा नियुक्ति दी जा सकती है, बशर्ते कि पहली पत्नी को कोई आपत्ती नहीं हो। (इस सम्बन्ध में मेरा आलेख-दोनों बीवी राजी को क्या करेगा काजी! पढा जा सकता है।) जबकि इसके विपरीत हालिया सुनाये गये एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया कि दत्तक सन्तान को अनुकम्पा नियुक्ति नहीं दी जा सकती।

पूर्व में सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट मत था कि कोई भी भारतीय स्त्री अदालत के समक्ष किसी पुरुष पर बलात्कार का झूठा आरोप नहीं लगा सकती। इसलिये बलात्कार के मामले में पीडिता के बयान को अन्तिम सत्य मानकर आरोपी को सजा सुनायी जा सकती है। इसी तथ्य पर सुप्रीम कोर्ट का हाल का मत है कि कोई भी स्त्री अदालत के समक्ष न मात्र असत्य बोलकर झूठा आरोप लगाकर बलात्कार के आरोप में पुरुष को झूठा फंसा सकती है, बल्कि कोर्ट ने यह भी कहा कि अनेक स्त्रियाँ रुपये लेकर भी बलात्कार के झूठे आरोप लगा सकती हैं। अतः उनके बयानों को अन्तिम सत्य मानकर आरोपी को सजा नहीं सुनाई जानी चाहिये।

सुप्रीम कोर्ट के इस प्रकार के विरोधाभाषी निर्णयों की एक लम्बी फेहरिश्त है। जिसके कारण क्या हैं, यह तो जाँच का विषय है, लेकिन इसके बारे में जो सफाई दी जाती है, वह यह है कि अलग-अलग जज के अलग-अलग विचारों के कारण ऐसे फैसले आते हैं! इसके विरोध में मेरा कहना है कि यदि कोई जज अपने विचारों के आधार पर फैसले करता है, तो वह जज की कुर्सी पर बैठने के काबिल ही नहीं है, क्योंकि इस देश में कानून का शासन है और कानून के अनुसार ही निर्णय लिये और किये जाते हैं। ऐसे जजों के अलग-अलग विचारों का क्या मतलब रह जाता है? लेकिन कोई न कोई वजह तो है ही, तब ही तो इस प्रकार के विरोधाभाषी निर्णय सामने आ रहे हैं और इन निर्णयों के कारण कितने निर्दोषों को सजा मिल जाती है और कितने दोषी छूट जाते हैं।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बहु को पीटना क्रूरता नहीं है! इस निर्णय के विरोध में अनेक स्त्री संगठनों ने धरने-प्रदर्शन किये तो सुप्रीम कोर्ट अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करने को राजी हो गया। पुनर्विचार के बाद क्या निर्णय आयेगा, ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर इस बात की परवाह किये बिना बहस होनी चाहिये कि बहस के कारण न्यायिक अवमानना का खतरा उत्पन्न हो सकता है! क्योंकि डरे और सहमे हुए लोगों को कभी भी न्याय नहीं मिलता है।

यदि महिलाओं के संगठनों के विरोध के कारण सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार करने को राजी है, तो इसका प्रथम दृष्टि में यही आशय है कि फैसले में ऐसा कुछ अवश्य है, जिसे फिर से देखा जा सकता है और मैं तो कहता हँू कि हर मामले में ऐसी सम्भावना बनी रहती है। परन्तु ऐसा दबाव कौन बनाये जिससे कोर्ट को पुनर्विचार करने को विवश होना पडे! जिस पुरुष को पीडिता के आरोप को अन्तिम सत्य मानकर सजा सुनाई गयी उसके पक्ष में और जिस पुरुष को पीडिता के बयान को अन्तिम सत्य नहीं मानकर बरी कर दिया गया उसके विरोध में कौन खडा होगा, जिससे कि कोर्ट पुनर्विचार करने को विवश हो?

क्या अब ऐसा समय आ गया है कि कोर्ट के निर्णयों के विरोध में भी जनता और संगठनों को सडक पर उतर कर, जिन्दाबाद-मुर्दाबाद करना होगा। यदि सुप्रीम कोर्ट के हाल में सुनाये गये फैसलों को देखें तो ऐसा ही लगता है। हमारे देश में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में मारपीट को क्रूरता की श्रेणी में माना गया है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट कहता है कि बहु को पीटना क्रूरता नहीं है, ऐसे में यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि इन हालातों में आरोपी को पुलिस द्वारा पीटना क्रूरता कैसे हो सकती है? और यदि क्रूरता की यही परिभाषा है तो फिर मानव अधिकार आयोग का क्या औचित्य रह जाता है?

जब पीटना ही क्रूरता नहीं है तो गाली-गलोंच और अभद्रतापूर्ण व्यवहार तो क्रूरता या अपराध होना ही नहीं चाहिये? इन परिस्थितियों में मेरा मानना है कि सभी क्षेत्रों और सभी समाजों के सभी प्रबुद्ध, साहसी एवं संवेदनशील लोगों को आगे आकर इन सब मुद्दों पर न मात्र खुलकर अपनी राय प्रकट करनी होगी, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के इस प्रकार के निर्णयों के प्रकाश में हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की चयन प्रक्रिया में कहीं कोई गुणवत्तात्मक कमी तो नहीं है?

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